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संकेतिका
ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी के महान् आचार्य अकलंकदेवं की रचना 'स्वरूपसंबोधन' पचीस श्लोकों में निबद्ध एक लघुकाय ग्रंथ है। इसमें आत्म-स्वरूप की मीमांसा अनेकांतदृष्टि से प्रस्तुत कर गागर में सागर का-सा रूप प्रदर्शित किया है। श्लोक छोटे हैं किन्तु अर्थ-गांभीर्य से गहन हैं। आचार्य अकलंक प्रमाण ग्रंथों के रचयिता में अग्रेगावा थे। इसीलिए यह उक्ति प्रचलित हुई 'प्रमाणमकलंकस्य'।
इस ग्रंथ पर दो टिकाएं हैं। एक है विद्यावारिधि पंडित खूबचन्दजी शास्त्री की और दूसरी है अज्ञात नामा आचार्य या मुनि की। दोनों टीकाएं मुद्रित हैं।
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