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८८ : जैन योग के सात ग्रंथ
शरीर और वाणी में आत्मभ्रान्ति रखने वाला शरीर और वाणी को ही आत्मा मानता है । परंतु अभ्रान्त साधक शरीर और वाणी से भिन्न आत्मा का निश्चय करता है।
५५. न
क्षेमंकरमात्मनः । बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥
तदस्तीन्द्रिययार्थेषु, तथापि रमते इन्द्रिय-विषयों में वैसा कुछ भी नहीं है जो आत्मा के लिए क्षेमंकर हो । फिर भी अज्ञानी अपने अज्ञानभाव से उन्हीं में रमण करता है।
५६.
कुयोनिषु । जाग्रति ॥
चिरं सुषुप्तास्तमसि, अनात्मीयात्मभूतेषु, अज्ञानी जीव दीर्घकाल तक निगोद आदि कुयोनियों में तथा मिथ्यात्व के अंधकार में सुषुप्त रहते हैं। वे अनात्मीय भावों में 'मम' (मेरे) और शरीर आदि आत्मभूत भावों में 'अहं' (मैं) ऐसा भाव रखते हैं।
५७.
पश्येन्निरन्तरं
यत्
मूढात्मानः
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ममाहमिति
अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे
५८.
आत्मतत्त्व में अवस्थित ज्ञानी निरंतर अपने शरीर को अनात्मबुद्धि से देखे और दूसरों के शरीर को भी अपर- आत्मबुद्धि से देखे । अज्ञापितं न जानन्ति, यथा मां ज्ञापितं तथा । मूढात्मानस्ततस्तेषां, वृथा मे ज्ञापनश्रमः ॥ मूढात्मा बिना बतलाए मुझे (आत्मा को ) जैसे नहीं जानते वैसे ही बतलाने पर भी मुझे नहीं जानते । मूढात्माओं को आत्म-स्वरूप समझाने का मेरा श्रम व्यर्थ है ।
५९.
देहमात्मनोऽनात्मचेतसा । 'व्यवस्थितः ॥
यद् बोधयितुमिच्छामि, तन्नाहं यदहं पुनः । ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत् किमन्यस्य बोधये ॥
जिसका बोध कराना चाहता हूं, वह मैं नहीं हूं और जो मैं हूं वह दूसरे को ग्राह्य नहीं है। तो फिर मैं दूसरे को क्या समझाऊं ?
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