Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 124
________________ ५. इष्टोपदेश : १०९ ३९. निशामयति निश्शेषामिन्द्रजालोपमं जगत्। स्पृहयत्यात्मलाभाय, गत्वान्यत्रानुतप्यते॥ योगी समस्त विश्व को इन्द्रजाल के समान देखता है, समझता है। वह आत्म-स्वरूप को पाने की अभिलाषा करता है। वह आत्मातिरिक्त कार्य में व्याप्त होने पर अनुताप करता है, पश्चात्ताप करता है। ४०. इच्छत्येकान्तसंवासं, निर्जनं जनितादरः। निजकार्यवशात् किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम्॥ निर्जनता को चाहनेवाला लोकमान्य योगी एकांतवास की इच्छा करता है। वह अपने कार्यवश कुछ कहता भी है तो उसे शीघ्र भुला देता है। ४१. ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति॥ अपने आपको आत्मस्वरूप में स्थिर कर लेने वाला योगी बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता और देखते हुए भी नहीं देखता। ४२. किमिदं कीदृशं कस्य, कस्मात् क्वेत्यविशेषयन्। स्वदेहमपि नावैति, योगी योगपरायणः॥ योग-परायण योगी यह क्या है? कैसा है ? किसका है? क्यों है? कहां है? आदि विकल्पों से शून्य होता है। वह अपने शरीर की भी परवाह नहीं करता। ४३. यो यत्र निवसन्नास्ते, स तत्र कुरुते रतिम्। यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति॥ जो जहां निवास करने लग जाता हैं, वह वहां आनंद का अनुभव करने लग जाता है। जो जहां आनंद मानता है, वह वहां से अन्यत्र नहीं जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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