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१०८ : जैन योग के सात ग्रंथ
आत्मा ही आत्मा का गुरु है, क्योंकि१. आत्मा ही अपने आप में प्रशस्त मोक्षसुख की अभिलाषा
करता है। २. आत्मा ही अपने द्वारा अभीष्ट मोक्षसुख के उपायों का
ज्ञापक है। ३. आत्मा ही स्वयं को अपने हित-मोक्ष के उपायों में लगाने
वाला है।
३५. नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाशत्वमृच्छति।
निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत्॥ __ अज्ञ विज्ञ नहीं बन सकता और विज्ञ अज्ञ नहीं बन सकता। गति में धर्मास्तिकाय की भांति दूसरा केवल निमित्त मात्र बनता है।
३६. अभवच्चित्तविक्षेप, एकान्ते तत्त्वसंस्थितः।
अभ्यस्येदभियोगेन, योगी तत्त्वं निजात्मनः॥ जिसका चित्त विक्षेपशून्य है, जो तत्त्व में संस्थित है-अपने साध्य में अविचल है, ऐसा योगी एकान्त में प्रयत्नपूर्वक अपने आत्म-स्वरूप के साक्षात्कार का अभ्यास करे।
३८.
३७. यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।
तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि॥ यथा यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि। तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्॥
(युग्मम्) जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व-विशुद्ध आत्म-स्वरूप का अनुभव होता है, वैसे-वैसे सुलभता से प्राप्त होनेवाले इन्द्रिय-विषय रुचिकर नहीं लगते।
जैसे-जैसे सुलभता से प्राप्त होने वाले इन्द्रिय-विषय रुचिकर नहीं लगते, वैसे-वैसे उत्तमतत्त्व का अनुभव होता जाता है।
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