Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 122
________________ ५. इष्टोपदेश : १०७ मेरी मृत्यु नहीं होती, तब फिर भय किसका ? मुझे व्याधि नहीं होती, तब फिर व्यथा कैसी ? मैं न बालक हूं, न वृद्ध हूं और न युवा हूं। ये सब अवस्थाएं पुद्गलों में ही होती हैं। भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान् मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ मैंने मोहवश (अज्ञानवश ) पुद्गलों को बार- बार भोगा है और उन्हें छोड़ा है। अब मुझ ज्ञानी की उन उच्छिष्ट भोगों के प्रति क्या स्पृहा हो सकती है ? ३०. जीवहितस्पृहः । कर्महिताबन्धि, जीवो स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे, स्वार्थं को वा न वाञ्छति॥ कर्म कर्म का हित चाहता है और जीव जीव का हित चाहता है । अपने-अपने प्रभाव के वृद्धिंगत होने पर अपने स्वार्थ को कौन नहीं चाहता ? ३१. कर्म स्वोपकारपरो भव । उपकुर्वन्परस्याज्ञो, दृश्यमानस्य लोकवत् ॥ दूसरों पर उपकार करना छोड़कर तुम अपना उपकार करने में तत्पर बनो। जो दृश्यमान पर-पदार्थों - शरीर आदि का उपकार करने में लगा रहता है, वह सामान्य लोगों की भांति अज्ञ है, मूर्ख है। ३२. परोपकृतिमुत्सृज्य, ३३. गुरूपदेशादभ्यासात्, स्वपरान्तरम् । संवित्तेः, जानाति यः स जानाति, मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥ गुरु जो के उपदेश के द्वारा, अभ्यास के द्वारा अथवा संवित्ति - स्वसंवेदन के द्वारा स्व-पर के भेद को जानता है वह मुक्ति-सुख का निरंतर अनुभव करता है। ३४. स्वस्मिन् स्वयं Jain Education International सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वातः । गुरुरात्मनः ॥ हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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