Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 125
________________ ११० : जैन योग के सात ग्रंथ ४४. अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु, बध्यते न विमुच्यते॥ आत्मज्ञानी योगी आत्मेतर पदार्थों में प्रवृत्ति नहीं करता, अतः वह उनकी विशेषताओं से अनभिज्ञ रहता है। विशेषताओं की अनभिज्ञता के कारण वह कर्मों से बंधता नहीं, मुक्त हो जाता है। ४५. परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्। अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः॥ ___ 'पर' पर है। उससे दुःख होता है। आत्मा आत्मा है अर्थात् 'स्व' स्व है, उससे सुख होता है। इसलिए महात्माओं ने आत्मा के लिए ही प्रयत्न किया है। ४६. अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं, योऽभिनन्दति तस्य तत्। न जातु जन्तोः सामीप्यं, चतुर्गतिषु मुञ्चति॥ जो अज्ञानी पुद्गल द्रव्य का अभिनंदन करता है, वह पुद्गल द्रव्य चारों गतियों में उस अज्ञानी की निकटता नहीं छोड़ता। ४७. आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य, व्यवहारबहिःस्थितेः। जायते परमानन्दः, कश्चिद्योगेन योगिनः॥ आत्मा के अनुष्ठान में लीन तथा व्यवहार से बाहर रहने वाले योगी को योग-आत्मध्यान के द्वारा कोई परम आनंद की प्राप्ति होती है। ४८. आनन्दो निर्दहत्युद्धं, कर्मेन्धनमनारतम्। न चासौ खिद्यते योगी, बहिर्दुःखेष्वचेतनः॥ वह परमानन्द प्रचुर कर्मरूपी ईंधन को निरंतर जलाता रहता है। वह योगी बाह्य दुःखों-क्लेशों का संवेदन नहीं करता, अतः वह कभी खिन्न नहीं होता। १. उद्धमिति प्रभूतम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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