________________
५. इष्टोपदेश : १११
अविद्याभिदुरं ज्योतिः, परं ज्ञानमयं महत्। तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं, तद् द्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः॥
अविद्या का नाश करने वाली वह ज्ञानमयी परम ज्योति अत्यंत श्रेष्ठ है। मुमुक्षु उसी के विषय में पूछे, उसी की अभिलाषा करे और उसी का अनुभव करे।
५०. जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य, इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः।
यदन्यदुच्यते किञ्चित्, सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः॥ 'जीव अन्य है और पुद्गल अन्य है'-तत्त्व का इतना ही सार है। इसके अतिरिक्त जो कुछ कहा जाता है, वह इसीका विस्तार है।
५१. इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्।
मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य। मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा, मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति . भव्यः॥
बुद्धिमान् मनुष्य 'इष्टोपदेश' को भलीभांति पढ़कर, मनन कर, स्वमत-इष्टोपदेश के अध्ययन द्वारा उत्पन्न आत्मज्ञान से मान
और अपमान में समता का विस्तार कर, आग्रहमुक्त होकर, चाहे वन में रहे या ग्राम-नगर में, वह भव्य व्यक्ति निरुपम मुक्ति-संपदा को प्राप्त करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org