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१०६ : जैन योग के सात ग्रंथ
अध्यात्मयोग-आत्मा में आत्मा के ध्यान से परीषहों का संवेदन न होने के कारण आस्रव का निरोध करने वाली कर्म-निर्जरा सहज होती है।
२५. कटस्य कर्ताहमिति, संबन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः।
ध्यानं ध्येयं यदात्मैव, संबन्धः कीदृशस्तदा॥ 'मैं चटाई का कर्ता हूं'-इस प्रकार दो भिन्न पदार्थों (मैं और चटाई में संबंध हो सकता है, किन्तु जहां आत्मा ही ध्यान है और आत्मा ही ध्येय है, वहां कैसा संबंध?
२६. बध्यते मुच्यते जीवः, सममो निर्ममः क्रमात्।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, निर्ममत्वं विचिन्तयेत्॥
ममतावान् जीव कर्मों से बंधता है और समतावान् कर्मों से मुक्त होता है। इसलिए सभी प्रयत्नों के द्वारा साधक निर्ममत्व का चिंतन करे, उसको साधे।
२७. एकोऽहं निर्ममः शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।
बाह्याः संयोगजा भावा, मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा॥
मैं एक-अकेला, ममतारहित, शुद्ध, ज्ञानी तथा योगिन्द्रों (केवलियों) द्वारा संवेद्य हूं। संयोगजन्य सभी भाव मेरे से सर्वथा बाह्य-भिन्न हैं।
२८. दुःखसंदोहभागित्वं, संयोगादिह देहिनाम्।
त्यजाम्येनं ततः सर्वं, मनोवाक्कायकर्मभिः॥ इस संसार में प्राणियों को संयोगजन्य दुःख-समूह भोगना पड़ता है, इसलिए इस समस्त संयोग को मैं मन, वचन और काया से छोड़ता हूं। २९. न मे मृत्युः कुतो भीर्तिन मे व्याधिः कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले॥
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