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१०४ : जैन योग के सात ग्रंथ १४. विपत्तिमात्मनो मूढः, परेषामिव नेक्षते।
दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत्
मृग आदि वन्य-पशुओं से आकीर्ण वन में दावानल सुलग गया। वन्य-पशु जल रहे हैं। वन के भीतर एक वृक्ष पर एक आदमी चढ़ गया। वह मूढ व्यक्ति दूसरों को (वन्य-पशुओं को) विपत्ति में फंसा देखकर भी अपने ऊपर आनेवाली विपत्तियों को नहीं देखता।
१५. आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालस्य निर्गमम्।
वाञ्छतां धनिनामिष्टं, जीवितात् सुतरां धनम्॥
काल के व्यतीत होने के साथ-साथ आयुष्य क्षीण होता है, पर व्याज आदि से धन बढ़ता है। इसलिए धनी व्यक्ति काल के बीतने की वांछा करता है, क्योंकि उसे अपने जीवन से भी धन अधिक इष्ट है, प्रिय है।
१६. त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः।
स्वशरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति॥
जो निर्धन व्यक्ति त्याग-पात्रदान आदि तथा श्रेयस्-पुण्यप्राप्ति के लिए धन का संचय करता है, वह 'मैं स्नान करूंगा' इस बुद्धि से अपने शरीर को कीचड़ से लथपथ करता है।
१७. आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान्, कामं कः सेवते सुधीः॥
आरंभ (उत्पत्तिकाल) में संतापकारक, प्राप्त होने पर अतृप्तिकारक और अन्त में दुस्त्यज-ऐसे कामभोगों का अत्यधिक सेवन कौन बुद्धिमान् करेगा? १८. भवन्ति प्राप्य यत्सगङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि।
स कायः संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा॥ जिसके संसर्ग को प्राप्त कर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र बन जाते हैं, वह शरीर सदा अपायबहुल है। उसके लिए भोगों की वांछा करना व्यर्थ है।
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