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८६ : जैन योग के सात ग्रंथ
मूढ़ पुरुष दृश्यमान तीन लिंगों वाले शरीर को आत्मा मानता है। ज्ञानी पुरुष अनादिसंसिद्ध और शब्द से अगोचर तत्त्व को ही आत्मा मानता है।
४५. जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं, विविक्तं भावयन्नपि।
पूर्वविभ्रमसंस्काराद्, भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति॥
आत्मतत्त्व को जानता हुआ भी तथा शरीर से उसे पृथक् मानता हुआ भी साधक विभ्रम के पूर्व संस्कारों के कारण पुनः आत्मभ्रान्ति को प्राप्त हो जाता है।
४६. अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः।
क्व रुष्यामि, क्व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः॥
जो दृश्य है, वह अचेतन है। जो अदृश्य है, वह चेतन है। तब मैं कहां करूं और कहां तोष करूं? इसलिए अच्छा है, मैं मध्यस्थ रहूं।
४७. त्यागाऽऽदाने बहिर्मूढः, करोत्यध्यात्ममात्मवित्।
नान्तर्बहिरुपादानं, न त्यागो निष्ठितात्मनः॥ मूढ़ व्यक्ति बाह्य का आदान और बाह्य का त्याग करता है। आत्मविद् आंतरिक का आदान और आंतरिक का त्याग करता है। परंतु जो सिद्धात्मा है उनके अंतर् और बाह्य का न त्याग होता है और न आदान। ४८. युजीत मनसाऽऽत्मानं, वाक्कायाभ्यां वियोजयेत्।
मनसा व्यवहारं तु, त्यजेद् वाक्काययोजितम्॥
आत्मा की मन के साथ योजित करो, वचन तथा शरीर से उसे विमुक्त करो। वचन और शरीर से संपादित व्यवहार को मन से छोड़ दो। ४९. जगत् देहात्मदृष्टीनां, विश्वास्यं रम्यमेव च।
स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां, क्व विश्वासः क्व वा रतिः॥
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