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९६ : जैन योग के सात ग्रंथ
मनुष्य की बुद्धि जिसमें लीन नहीं होती, उसमें श्रद्धा नहीं होती और जिससे श्रद्धा निवर्तित हो जाती है, उसमें चित्त का लय कैसे होगा?
९७. भिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परो भवति तादृशः।
वर्तिीपं यथोपास्य, भिन्ना भवति तादृशी॥ भिन्नात्मा अर्थात् अपनी आत्मा से भिन्न अरहंत, सिद्धरूप आत्मा की उपासना करने वाला उपासक स्वयं अरहंत, सिद्धरूप परमात्मा बन जाता है। जैसे दीपक से भिन्न बाती, ज्योति की उपासना कर स्वयं ज्योतिर्मय बन जाती है।
९८. उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा।
मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव, जायतेऽग्निर्यथा तरुः॥
आत्मा आत्मा की ही उपासना कर परम आत्मा बन जाता है। जैसे तरु-बांस बांस के साथ अपने आपका घर्षण कर अग्नि बन जाता है।
९९. इतीदं भावयेन्नित्यमवाचां गोचरं पदम्।
स्वत एव तदाप्नोति, यतो नावर्तते पुनः॥
इस प्रकार सदा आत्मा की ही भावना करे। इसके फलस्वरूप वाणी से अनिर्देश्य मोक्षपद स्वतः प्राप्त होता है। मोक्षपद से पुनः आवर्त्तन नहीं होता।
१००. अयत्नसाध्यं निर्वाणं, चित्तत्वं भूतजं यदि।
अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित्॥ यदि चेतन तत्त्व को पंचभूतात्मक माना जाए तो निर्वाण अयत्नसाध्य होगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहेगी। यदि चेतना तत्त्व भूतात्मक नहीं है तो निर्वाण की प्राप्ति योगाभ्यास से होगी। इसलिए योगी को कहीं भी दुःख नहीं होता।
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