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४. समाधिशतक : ८९
६०. बहिस्तुष्यति मूढात्मा, पिहितज्योतिरन्तरे।
तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा, बहिावृत्तकौतुकः॥
मूढ़ात्मा की अन्तर्योति ढ़की रहती है, इसलिए वह बाह्य पदार्थों में संतुष्ट रहता है। प्रबुद्धात्मा बाह्य से राग को हटाकर अन्तर् में संतुष्ट रहता है।
६१. न जानन्ति शरीराणि, सुखदुःखान्यबुद्धयः।
निग्रहानुग्रहधियं, तथाप्यत्रैव कुर्वते॥
शरीर सुख-दुःख को नहीं जानते, फिर भी बहिरात्म! शरीर में ही निग्रह और अनुग्रह बुद्धि रखते हैं।
६२. स्वबुद्ध्या यावद् गृण्हीयात्, कायवाक्चेतसां त्रयम् ।
संसारस्तावदेतेषां, भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः।। जब तक प्राणी शरीर, वाणी और मन-इन तीनों को आत्मबुद्धि से ग्रहण करता है, तब तक संसार है। जब 'आत्मा तीनों से भिन्न है'-ऐस्सा भेदविज्ञान उत्पन्न होता है, तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।
६३. घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न घनं मन्यते तथा।
घने स्वदेहेऽप्यात्मानं, न घनं मन्यते बुधः ।।
जैसे मोटे वस्त्र पहनकर ज्ञानी अपने आपको मोटा नहीं मानता, वैसे ही शरीर मोटा हो जाने पर भी आत्मा को मोटा नहीं मानता। ६४. जीणे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न जीणं मन्यते तथा।
जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं, न जीर्णं मन्यते बुधः॥
जैसे वस्त्र के जीर्ण होने पर भी ज्ञानी स्वयं को जीर्ण-शीर्ण नहीं मानता, वैसे ही अपने शरीर के जीर्ण होने पर भी आत्मा को जीर्ण नहीं मानता।
६५. नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न नष्टं मन्यते तथा।
नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं, न नष्टं मन्यते बुधः।।
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