________________
४. समाधिशतक : ८१ दूसरे मेरा प्रतिपादन करते हैं, मैं दूसरों का प्रतिपादन करता हूं, यह मेरी उन्मत्त चेष्टामात्र है, क्योंकि मैं तो निर्विकल्प हूं।'
२०. यदग्राह्यं न गृह्णाति, गृहीतं नापि मुञ्चति।
जानाति सर्वथा सर्वं, तत् स्वसंवेद्यमस्म्यहम्॥
जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता, गृहीत को नहीं छोड़ता और सर्व को सर्वथा जानता है, वह स्वसंवेद्य मैं हूं।
२१. उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणौ यद्वद् विचेष्टितम्।
तद्वन्मे चेष्टितं पूर्व, देहादिष्वात्मविभ्रमात्॥
जैसे ढूंठ में पुरुष की भ्रांति होने पर भ्रांत पुरुष विविध चेष्टाएं करता है, वैसे ही शरीर में आत्मा की भ्रांति होने पर मेरी पूर्व चेष्टाएं थीं।
२२. यथासौ चेष्टते स्थाणौ, निवृत्ते पुरुषाग्रहे।
तथाचेष्टोऽस्मि देहादौ, विनिवृत्तात्मविभ्रमः॥ ढूंठ में पुरुष का आग्रह (भ्रम) निवृत्त हो जाने पर पुरुष जिस प्रकार की प्रवृत्ति करता है, वैसे ही शरीर आदि पर-पदार्थों में आत्मविभ्रम के दूर हो जाने पर, देह आदि के प्रति मेरी चेष्टाएं हुई हैं।
२३. येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि
सोऽहं न तन्न सा नासौ, नैको न द्वौ न वा बहुः॥
जो आत्मा आत्मा में, आत्मा से, आत्मा का अनुभव करता है, वही मैं हूं। वह न नपुंसक है, न स्त्री है और न पुरुष। वह न एक है, न दो है और न बहु है। २४. यदभावे सुषुप्तोऽहं, यद्भावे व्युत्थितः पुनः।
अतीन्द्रियमनिर्देश्य, तत् स्वसंवेद्यमस्म्यहम्॥ १. आत्मा न वचनगोचर है और न इन्द्रियगोचर। वह केवल अनुभवगोचर है,
ज्ञानगम्य है, स्वसंवेद्य है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org