________________
८२ : जैन योग के सात ग्रंथ
जिसके अभाव में मैं सुषुप्त रहा और जिसके सद्भाव में मैं जागृत हुआ, वह अतीन्द्रिय, अनिर्देश्य-वचनातीत और स्वसंवेद्य मैं हं, आत्मा हूं।
२५. क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः।
बोधात्मानं ततः कश्चिन्, न मे शत्रुर्न च प्रियः॥
वास्तव में ज्ञानस्वरूप मुझ आत्मा को देखने वाले के इसी जन्म में राग आदि दोष क्षीण हो जाते हैं, तत्पश्चात् मेरा न कोई शत्रु होता है और न मित्र।
२६. मामपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः।
मां प्रपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः॥ मुझे नहीं देखने वाला यह जगत् न मेरा शत्रु है और न मेरा मित्र । मुझे देखने वाला यह जगत् न मेरा शत्रु है और न मेरा मित्र ।
२७. त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः।
भावयेत् परमात्मानं, सर्वसंकल्पवर्जितम्॥
इस प्रकार बहिरात्मभाव को छोड़कर, अंतरात्मभाव में व्यवस्थित होकर साधक सर्वसंकल्पवर्जित-निर्विकल्प परम आत्मा की भावना करे।
२८. सोऽहमियात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः।
तत्रैव दृढसंस्कारात्, लभते ह्यात्मनि स्थितिम्॥ 'सोऽहं'-'वह मैं हूं'–इस गृहीत संस्कार से स्वयं को पुनः पुनः भावित करने पर ध्याता संस्कार की दृढ़ता से आत्मा में अविचल स्थिरता प्राप्त करता है।
२९. मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद् भयास्पदम्।
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org