________________
८० : जैन योग के सात ग्रंथ
शरीर में आत्म-बुद्धि के भ्रम से 'मेरा पुत्र', 'मेरी भार्या', आदि की कल्पनाएं होती हैं। तब जीव उन अनात्मीय को ही अपनी संपत्ति मान लेता है। हा! खेद है कि यह संसार इस मिथ्या मान्यता से पीड़ित हो रहा है।
१५. मूलं संसारदुःखस्य, देह एवात्मधीस्ततः।
त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः॥
देह में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दुःख का मूल है। इस बहिरात्मभाव को छोड़कर बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति न करता हुआ साधक अंतरात्मा में प्रवेश करे, अंतरात्मा बने।
१६. मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः, पतितो विषयेष्वहम्।
तान् प्रपद्याहमिति मां, पुरा वेद न तत्त्वतः॥ .मैं अपने आत्म-स्वरूप से च्युत होकर इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में फंस गया। उनके वशीभूत होकर मैं अनादिकाल से अपने आपको 'मैं चेतन आत्मा हूं' इस प्रकार यथार्थरूप में नहीं जान सका।
१७. एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं, त्यजेदन्तरशेषतः।
एष योगः समासेन, प्रदीपः परमात्मनः॥ इस प्रकार बाह्यार्थवाचक शब्दों को छोड़कर समस्त अन्तर्वाचक शब्दों को भी छोड़ दे। यही संक्षेप में परमात्मा के स्वरूप का प्रकाशक योग है।
१८. यन्मया दृश्यते रूपं, तन्न जानाति सर्वथा।
जानन्न दृश्यते रूपं, ततः केन ब्रवीम्यहम्॥ है जिस रूप को मैं देखता हूं, वह मुझे सर्वथा नहीं जानता। जो जानता है वह रूप दृश्य नहीं है। तब मैं किसके साथ बोलूं?
१९.
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं, यत् परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे, यदहं निर्विकल्पकः।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org