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६८ : जैन योग के सात ग्रंथ
द्वेषभाव उत्पन्न होने पर ध्याता सोचे कि जीव और पुद्गल भिन्न हैं। उनका परिणाम अस्थिर है और परलोक में इसका विपाक अमनोज्ञ होता है।
७१. चिंतेज्जा मोहम्मी ओहेणं ताव वत्थुणो तत्तं।
उप्पाय-वय-धुवजुयं अणुहवजुत्तीए सम्म ति॥ मोह के विषय में ध्याता सबसे पहले अनुभव और युक्ति से वस्तु के स्वरूप का चिंतन करे कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है।
७२. नाभावो च्चिय भावो अतिप्पसंगेण जुज्जइ कयाइ।
ण य भावोऽभावो खलु तहासहावत्तऽभावाओ॥ ___ अतिप्रसंग दोष के कारण अभाव (असत्) कभी भाव (सत्) नहीं बनता और भाव कभी अभाव नहीं बनता। क्योंकि वस्तु का वैसा स्वभाव नहीं है।
७३. एयस्स उ भावाओ णिवित्ति-अणुवित्तिजोगओ होति।
उप्पायादी णेवं अविगारी वऽणुहवविरोहा॥
प्रत्येक वस्तु में स्वभावतः निवृत्ति और अनुवृत्ति का योग होता है। प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों होते हैं। आत्मा को एकांततः अविकारी अर्थात् कूटस्थ नित्य मानना अनुभव-विरुद्ध है। ७४. आणाए चिंतणम्मी तत्तावगमो णिओगओ होति।
भावगुणागरबहुमाणओ य कम्मक्खओ परमो॥
शास्त्र के अनुसार चिंतन करने से तत्त्व का बोध अवश्य होता है तथा भावगुणाकर-तीर्थंकर आदि का बहुमान करने से उत्कृष्ट कर्मक्षय होता है।
७५. पइरिक्के वाघाओ न होइ पाएण योगवसिया य।
जायइ तहापसा हंदि अणब्भत्थजोगाणं॥
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