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३. योगशतक : ६७
जो साधक चिंतनीय विषय में दत्तचित्त हो जाता है, उसको उस एकाग्रता के कारण अधिकृत वस्तु का यथार्थ स्वरूप अवभासित होता है और यही इष्टसिद्धि का प्रधान अंग है।
एयं खु तत्तणाणं असप्पवित्तिविणिवित्तिसंजणगं । थिरचित्तगारि लोगदुगसाहगं बेंति समयण्णू ॥
यही तत्त्वज्ञान असत् प्रवृत्ति का निवर्तक, चित्त की स्थिरता कराने वाला तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकों का साधक है- उपकारक है, ऐसा शास्त्रज्ञों का कथन है।
६६.
६७.
६८.
थीरागम्मी तत्तं तासिं चिंतेज्ज सम्मबुद्धीए । कलमलग-मंससोणिय पुरीस-कंकालपायं
ति ॥
रोग - जरापरिणामं चलरागपरिणतिं
७०.
णरगादिविवागसंगयं
जीयनासणविवागदोसं
( युग्मम्)
स्त्री के प्रति राग होने पर ध्याता सम्यग् बुद्धि से स्त्री के वास्तविक स्वरूप का चिंतन करे कि स्त्री का कलेवर कलमलक- उदरमलों, मांस, शोणित, पुरीष तथा कंकाल मात्र है। वह रोग तथा जरा से ग्रस्त होने वाला, नरक आदि कटुक विपाक को देने
होता है । स्त्री का अनुराग भी चंचल होता है तथा अन्त में जीवत्व का नाश करने वाला विपाक दोष भी पैदा होता है।
६९.
अहवा ।
ति ॥
अत्थे रागम्मि उ अज्जणाइदुक्खसयसंकुलं तत्तं । गमणपरिणामजुत्तं कुगइविंवागं च चिंतेज्जा ॥ धन के प्रति राग होने पर ध्याता सोचे कि धन उपार्जन, रक्षण आदि सैकड़ों दुःखों - कष्टों से संकुल है। वह विनष्ट होने वाला तथा कुगति के विपाक से युक्त है।
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दोसम्म उ जीवाणं विभिण्णयं एव पोग्गलाणं च । अणवट्ठियं परिणतिं विवागदोसं च परलोए ॥
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