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२. ध्यानशतक : ४५ ८१. निव्वाणमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स।
सुहुमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स॥ मोक्षगमन के प्रत्यासन्न काल में केवली के मन और वचन की प्रवृत्ति निरुद्ध हो जाती है, किन्तु उच्छवास-निःश्वासरूप काया की सूक्ष्म प्रवृत्ति वर्तमान रहती है। यह शुक्लध्यान का 'सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति' नामक तीसरा प्रकार है।
८२. तस्सेव ये सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स।
वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं।
शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली मेरु की भांति निष्प्रकंप हो जाता है। यह शुक्लध्यान का 'व्यवच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती' नामक चौथा प्रकार है। यह परमशुक्ल ध्यान है। ८३. पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बितियमेगजोगंमि।
तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगंमि य चउत्थं॥
शुक्लध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग विद्यमान रह सकते हैं। दूसरे प्रकार में तीन में से कोई एक योग विद्यमान रहता है। तीसरे प्रकार में केवल एक काययोग ही विद्यमान रहता है। तथा चौथे प्रकार में कोई योग नहीं रहता। वह अयोगी को ही प्राप्त होता है। ८४. जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो।
तह केवलिणो काओ सुनिच्चलो भण्णए झाणं॥
जैसे छद्मस्थ व्यक्ति के सुनिश्चल मन को ध्यान कहा जाता है, वैसे ही केवली के सुनिश्चल काया को ध्यान कहा जाता है। ८५. पुव्वप्पओगओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि।
सहत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य॥ चित्ताभावेवि सया सुहुमोवरयकिरियाइ भण्णंति। जीवोवओगसब्भावओ भवत्थस्स झाणाई॥
(युग्मम्)
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