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५८ : जैन योग के सात ग्रंथ
२४. गुरुणा लिंगेहिं तओ एएसिं भूमिगं मुणेऊणं।
उवएसो दायव्वो जहोचियं ओसहाऽऽहरणा॥ इसलिए इन अधिकारियों की भूमिकाओं को लक्षणों से जान कर गुरु औषध के दृष्टांत का अनुसरण कर उन्हें यथायोग्य उपदेश दे।
२५. पढमस्स लोगधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं।
गुरुदेवाऽतिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च॥ प्रथम कोटि (अपुनर्बंधक आदि) के साधक को सामान्य रूप से लोक-धर्म का उपदेश देना चाहिए, जैसे-दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाना, गुरु, देव तथा अतिथि की पूजा करना, तथा हीन-दीन व्यक्तियों को दान देना आदि।
२६. एवं चिय अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स।
रणे पहपब्भट्ठोऽवट्टाए वट्टमोयरइ॥
जैसे अरण्य में पथभ्रष्ट व्यक्ति पगडंडी से चलता हुआ मार्ग में आ जाता है, उसी प्रकार लौकिक धर्म के आधार से योग के प्रारंभिक साधकों का मोक्ष मार्ग में अवतरण हो जाता है।
२७. बीयस्स उ लोगुत्तरधम्मम्मि अणुव्वयाइ अहिगिच्च।
परिसुद्धाणायोगा तस्स तहाभावमासज्ज॥
दूसरी कक्षा के योगियों को विशुद्ध आज्ञायोग के आधार पर उसके यथावत् भावों को समझकर अणुव्रत आदि का आश्रय लेकर लोकोत्तर धर्म का उपदेश देना चाहिए।
२८. तस्साऽऽसण्णत्तणओ तम्मि दढं पक्खवायजोगाओ।
सिग्धं परिणामाओ सम्म परिपालणाओ य॥
क्योंकि यही उपदेश श्रावक धर्म के निकट है और इसी में उस साधक का दृढ़ पक्षपात-अनुबंध होता है। इससे ही क्रिया का परिणाम भी शीघ्र आता है और वह इसका सम्यग् परिपालन भी कर सकता है।
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