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५६ : जैन योग के सात ग्रंथ
१५. मग्गणुसारी सद्धो पण्णवणिज्जो कियापरो चेव।
गुणरागी सक्कारंभसंगओ तह य चारित्ती॥
जो मार्गानुसारी है, श्रद्धालु है, प्रज्ञापनीय है, क्रिया में तत्पर और गुणानुरागी है तथा शक्य प्रवृत्ति में ही प्रवृत्त होता है-ये चारित्री के लक्षण हैं।
१६. एसो सामाझ्यसुद्धिभेयओ णेगहा मुणेयव्वो।
आणापरिणइभेया अंते जा वीयरागो ति॥ यह चारित्री सामायिक-समता की शुद्धि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। समता की शुद्धि के भेद का कारण है-भगवद् आज्ञा के पालन की तरतमता। इस शुद्धि का अंतिम प्रकार है-वीतराग अवस्था-क्षायिक वीतराग।
१७. पडिसिद्धेसु अदेसे विहिएसु य ईसिरागभावे वि।
सामाइयं असुद्धं सुद्धं समयाए दोसुं पि॥ प्रतिषिद्ध प्रवृत्तियों के प्रति द्वेष, अप्रीति तथा विहित-सम्मत प्रवृत्तियों के प्रति थोड़ा भी रागभाव सामायिक-समता को अशुद्ध बना डालता है। प्रतिषिद्ध और विहित-दोनों प्रवृत्तियों के प्रति मध्यस्थता ही समता का निर्मल रूप है, शुद्ध सामायिक है।
१८. एयं विसेसणाणा आवरणावगमभेयओ चेव। . इय दट्ठव्वं पढमं भूसणठाणाइपत्तिसमं॥
यह शुद्ध सामायिक दो कारणों से निष्पन्न होती है-(१) विशेष ज्ञान के द्वारा तथा (२) चारित्र मोहनीय के विशेष आवरण के दूर होने से। इस प्रकार भूषण, स्थान आदि की प्राप्ति में तथा सिद्धि में सहायक समता को प्रथम सम्यक्त्व सामायिक की उपलब्धि माननी चाहिए।
१९. किरिया उ दंडजोगेण चक्कभमणं व होइ एयस्स।
आणाजोगा पुव्वाणुवेहओ चेव णवरं ति॥
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