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३. योगशतक : ५५
१०. अणियत्ते पुण तीए एगंतेणेव हंदि अहिगारे।
तप्परतंतो भवरागओ दढं अणहिगारि ति॥ कर्म प्रकृति का सर्वथा निवर्तन न होने पर निश्चित रूप से अधिकार प्राप्त नहीं होता। जो जीव प्रकृतिपरतंत्र-कर्म के अधीन होता है तथा जिसका भवराग दृढ़ होता है, वह अनधिकारी है।
११. तप्पोग्गलाण तग्गहणसहावावगमओ य एयं ति।
___ इय दट्ठव्वं इहरा तहबंधाई न जुज्जति॥
कर्म-पुद्गलों का स्वभाव है कि वे आत्मा के द्वारा गृहीत होते हैं तथा छोड़े जाते हैं। इसीलिए अधिकारी और अनधिकारी का कथन किया गया है। अन्यथा (ग्रहण और अपगम न मानने पर) बंध आदि की व्यवस्था घटित नहीं होती। १२. एयं पुण णिच्छयओ अइसयणाणी वियाणए णवरं।
इयरो वि य लिंगेहिं उवउत्तो तेण भणिएहिं॥
आत्मा और कर्म-पुद्गलों के संबंध के विषय में निश्चित रूप से केवल अतिशयज्ञानी-केवलज्ञानी ही जानते हैं और दूसरे (छद्मस्थ) व्यक्ति भी अनुमान प्रमाण से अथवा केवली के कथन से उसको जान पाते हैं।
१३. पावं न तिव्वभावा कुणइ ण बहुमण्णई भवं घोरं।
उचियट्टिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति॥
जो तीव्र भावना से पापकर्म नहीं करता, जो घोर संसार में रचापचा नहीं रहता, जो समस्त क्रिया-कलापों में उचित व्यवस्था का पालन करता है, वह अपुनर्बन्धक होता है। १४. सुस्सूस धम्मराओ गुरु-देवाणं जहासमाहीए।
वेयावच्चे णियमो सम्मद्दिट्ठिस्स लिंगाइ॥
जो धर्म सुनने की इच्छा करता है, धर्मानुरागी है, अपनी शक्ति के अनुसार तथा मानसिक स्वस्थता से गुरु और देव की नियमित परिचर्या करता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। ये सम्यग्दृष्टि के चिह्न हैं।
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