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६० : जैन योग के सात ग्रंथ
संवरणिच्छित्तं विहिसज्झाओ
३५.
३६.
गुरु के अनुशासन में गुरुकुल में रहना, यथायोग्य विनय करना, काल मर्यादा के अनुसार वसति प्रमार्जन आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होना, शक्ति का गोपन किए बिना शांतचित्त से सभी ( श्रमणयोग्य) क्रियाओं में प्रवर्तन करना, गुरुवचन के पालन में 'मेरा सदा श्रेय है' - ऐसा चिंतन करना तथा यह सोचना कि मेरे पर गुरु का अनुग्रह है कि उन्होंने मुझे ऐसा कहा, संवर अर्थात् त्याग का निश्छिद्र पालन करना, कल्पनीय शुद्ध भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करना, विधिपूर्वक स्वाध्याय करना, मृत्यु आदि कष्टों को सहने के लिए तत्पर रहना - यह उपदेश मुनियों के लिए विहित है ।
सुधुंछुज्जीवणं मरणादवेक्खणं
३७.
सुपरिसुद्धं । जइजणुवएसो ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् )
उवसोऽविसयम्मी विसए वि अणीइसो अणुवएसो । बंधनिमित्तं णियमा जहोइओ पुण भवे जोगो ॥
अपुनर्बंधक आदि भूमिकाओं के लिए अयोग्य व्यक्ति को उपरोक्त उपदेश देना अथवा योग्य व्यक्ति को विपरीत उपदेश देना- दोनों योग निश्चित ही बंध के निमित्त बनते हैं। योग विषयक जो यथार्थ बात कही है, वही योग होता है ।
गुरुणो अजोगिजोगो अच्छंतविवागदारुणो णेओ ।
धम्मलाघवओ ॥
गुणा
णट्टणासणा
योगी आचार्य का योग के विपरीत आचरण तथा उपदेश अत्यंत दारुण विपाकवाला होता है, क्योंकि उससे योगी- गुणों की हीलना होती है तथा उपदेशक स्वयं नष्ट होता है और विपरीत उपदेश से और
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१. इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी किया गया है-योग्य अधिकारी को यथार्थ उपदेश दिया हो, किन्तु उसी विषय के बाधक तत्त्वों का उपदेश न दिया हो तो उपरोक्त प्रतिपादित योग भी निश्चित रूप से बंधन का निमित्त बनता है।
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