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३. योगशतक : ६१
अधिक विनाश करता है। इससे धर्म की लघुता होती है।'
३८. एयम्मि परिणयम्मी पवत्तमाणस्स अहिगठाणेसु।
एस विही अइणिउणं पायं साहारणो णेओ॥ योग के उपदेश के परिणत-परिपक्व हो जाने पर आगे की विशिष्ट भूमिकाओं में प्रवर्तमान साधक के लिए अतिसूक्ष्मता से कही जाने वाली यह विधि प्रायः साधारण ही जाननी चाहिए।
३९. निययसहावालोयण - जणवायावगम - जोगसुद्धीहिं।
उचियत्तं णाऊणं निमित्तओ सइ पयट्टेज्जा। अपने स्वभाव का आलोचन, जनापवाद का ज्ञान तथा मन, वचन और काया-इन तीनों योगों की शुद्धि-इन तीनों निमित्तों से औचित्य को जानकर साधक उस योग में प्रवृत्ति करे। ४०. गमणाइएहिं कायं णिरवज्जेहिं वयं च भणिएहिं।
सुहचिंतणेहि य मणं सोहेज्जा जोगसुद्धि ति॥ साधक निर्दोष गमन आदि के द्वारा शरीर की, निरवद्य वचनों से वाणी की तथा शुभ चिंतन से मन की विशोधि करे। यही योगशुद्धि है।
४१. सुहसंठाणा अण्णे कायं वायं च सुहसरेणं तु।
सुहसुविणेहिं च मणं, जाणेज्जा जोगसुद्धि ति॥ कुछ मानते हैं कि शुभ संस्थान से शरीर को, शुभ स्वर से वाणी को तथा शुभ स्वप्नों से मन को शुद्ध करे। यही योगशुद्धि है।
४२. एत्थ उवाओ य इमो सुहदव्वाइसमवायमासज्ज।
पडिवज्जइ गुणठाणं सुगुरुसमीवम्मि विहिणा तु॥ १. इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी किया गया है-आचार्य यदि अयोग्य को
योग का उपदेश देते हैं तो वह अत्यंत दारुण विपाक वाला होता है। क्योंकि इसमें योगियों के गुण की अवहेलना, स्वयं नष्ट होकर दूसरे का विनाश करना तथा धर्म की लघुता भी होती है।
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