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३. योगशतक : ५७ जैसे (कुम्हार का) चाक डंडे के योग से घूमता रहता है, वैसे ही आज्ञा के योग से तथा 'पूर्वानुवेध'-पूर्वार्जित संस्कारों के योग से इस सामायिक वाले साधक की प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप चर्या होती रहती है।
२०. वासी-चंदणकप्पो समसुह-दुक्खो मुणी समक्खाओ।
भव-मोक्खापडिबद्धो अओ य पाएण सत्थेसु॥
इसलिए शास्त्रों में प्रायः उसी को मुनि कहा है जो 'वासीचंदनकल्प' बर्ची से काटे जाने या चंदन से लेप किए जाने पर भी, समभाव में रहता है, जो सुख और दुःख में सम रहता है और जो संसार और मोक्ष के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता।
ठाणा
२१. एएसिं णियणियभूमियाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं।
आणामयसंयुत्तं तं सव्वं चेव योगो ति॥ इन अपुनर्बंधक आदि जीवों के, अपनी-अपनी भूमिका के लिए, उचित तथा आज्ञारूप अमृत से संयुक्त जो जो अनुष्ठान हैं वे सब 'योग' हैं।
२२. तल्लक्खणयोगाओ उ चित्तवित्तीणिरोहओ चेव।
तह कुसलपवित्तीए मोक्खेण उ जोयणाओ ति॥ योग के अनेक लक्षण हैं१. चित्तवृत्ति का निरोध योग है। २. कुशल प्रवृत्ति योग है। ३. मोक्ष के साथ योजित करने वाली प्रवृत्ति योग है। ये सब भिन्न-भिन्न भूमिका के साधकों में घटित होते हैं।
२३. एएसिं पि य पायं वज्झाणायोगओ उ उचियम्मि।
अणुठाणम्मि पवित्ती जायइ तहसुपरिसुद्ध त्ति॥ .. इन भिन्न-भिन्न अधिकारियों की प्रायः प्रवृत्ति उचित अनुष्ठान में ही होती है क्योंकि उसमें अपध्यान का योग नहीं होता तथा वह विशेष परिशुद्ध भी होती है।
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