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२. ध्यानशतक : ४७
९२. देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह त सव्वसंजोगे। देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) शुक्लध्यानोपगत चित्त वाले मुनि की पहचान के ये चार लक्षण हैं
१.अव्यथ-परीषह और उपसर्गों से न डरना, न चलित होना। २.असंमोह-अत्यंत गहन भावों तथा देवमाया से संमूढ़ न होना। ३. विवेक-शरीर और आत्मा तथा सभी संयोगों को आत्मा से
भिन्न मानना। ४.व्युत्सर्ग-अनासक्त होकर देह और उपधि का सर्वथा त्याग
करना।
९३. होति सुहासवसंवरविणिज्जराऽमरसुहाई विउलाई।
झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स॥
उत्तम धर्म्यध्यान के ये फल हैं-शुभआस्रव, संवर, निर्जरा, देवसुख- ये सारे दीर्घस्थिति, विशुद्धि और उपपात के विस्तीर्ण तथा शुभानुबंधी फलों की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। (इसका अभिप्राय यह है कि धर्म्यध्यान से पुण्य कर्मों का बंध, पाप कर्मों का निरोध और पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है। ये सब उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। उससे परभव में देवगति की प्राप्ति होती है। वहां आयु की दीर्घता
और सुखोपयोग की बहुलता होती है।) ९४. ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च।
दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं॥
शुभ आस्रव, संवर और निर्जरा की विशेष प्राप्ति तथा अनुत्तरविमान-वासी देवों का सुख मिलना-यह शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों का फल है तथा अंतिम दो प्रकारों का फल है-परिनिर्वाण।
९५.
आसवदारा संसारहेयवो जं ण धम्मसुक्केसु। संसारकारणाइ न तओ धुवं धम्मसुक्काइं॥
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