________________
४८ : जैन योग के सात ग्रंथ
आस्रवद्वार संसार के हेतु हैं इसलिए वे धर्म्य और शुक्लध्यान में नहीं होते। इसीलिए धर्म्य और शुक्लध्यान निश्चितरूप से संसार के हेतु नहीं होते, किन्तु मुक्ति के कारण होते हैं।
९६. संवरविणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवो पहो तासिं।
झाणं च पहाणंगं तवस्स तो मोक्खहेऊयं॥
संवर और निर्जरा-दोनों मोक्ष के मार्ग हैं और उनका (संवर और निर्जरा का) पथ है-तप। तप का प्रधान अंग है-ध्यान, इसलिए ध्यान मोक्ष का हेतु है।
९७.
अंबरलोहमहीणं कमसो जह मलकलंकपंकाणं। सोज्झावणयणसोसे साहेति जलाऽणलाऽऽइच्चा॥
तह सोज्झाइसमत्था जीवंबरलोहमेइणिगयाणं। झाणजलाऽणलसूरा कम्ममलकलंकपंकाणं॥
(युग्मम्) जिस प्रकार पानी वस्त्र पर लगे मैल को साफ करता है, वैसे ही ध्यान जीव से संलग्न कर्मरूप मैल को साफ कर देता है। जिस प्रकार अग्नि लोह पर लगे जंग को दूर कर देती है, वैसे ही ध्यान जीव से संबद्ध कर्मरूप कलंक को दूर कर देता है। जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी के कीचड़ को सुखा देता है, वैसे ही ध्यान जीव से संलग्न कर्मरूप कीचड़ को सुखा देता है। ९९. तापो सोसो भेओ जोगाणं झाणओ जहा निययं।
तह तावसोसभेआ कम्मस्स वि झाइणो नियमा। जिस प्रकार ध्यान से मन, वचन आदि योगों का ताप-दुःख, शोष-दौर्बल्य और भेद-विदारण अवश्य ही होता है उसी प्रकार ध्यान से ध्याता के कर्मों का भी ताप, शोष और भेद अवश्य होता है।
१००. जह रोगासयसमणं विसोसणविरेयणोसहविहीहिं।
तह कम्मामयसमणं झाणाणसणाइजोगेहिं॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org