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२. ध्यानशतक : ३९
५१. पयइठिइपएसाऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं।
जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचिंतेज्जा॥ प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाव आदि भेदों से भिन्न, शुभ और अशुभ में विभक्त, योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) तथा अनुभाव (मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय) से उत्पन्न कर्मविपाक का चिंतन करना धर्म्यध्यान का 'विपाक विचय' नामक तीसरा प्रकार है।
५२. जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाई।
उप्पायट्ठिइभंगाइपज्जवा जे य दव्वाणं॥
अर्हत् द्वारा प्ररूपित द्रव्यों के लक्षण, संस्थान-आकार, आसन-आधार, विधान-जीव-पुद्गल आदि का भेद, मान-परिमाण, उत्पाद, स्थिति-ध्रौव्य, भंग-व्यय-इन पर्यायों का चिंतन करे।
५३. पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं।
णामाइभेयविहिअं तिविहमहोलोयभेयाई॥ लोक पंचास्तिकायमय, अनादि-अनन्त, नाम आदि निक्षेपों के भेद से अवस्थापित, अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक-इन तीन भेदों से विभक्त है। (लोक के इस संस्थान का चिंतन करे)।
५४. खिइवलयदीवसागरनिरयविमाणभवणाइसंठाणं । ___ वोमाइपइट्ठाणं निच्चं लोगट्ठिइविहाणं॥
पृथिवी, वलय-घनोदधि आदि, द्वीप, सागर, नरक, विमान और भवन के संस्थानों का चिंतन करे तथा आकाश आदि पर प्रतिष्ठित शाश्वतिक लोकस्थिति के प्रकार का भी चिंतन करे। ५५. उवओगलक्खणमणाइनिहणमत्थंतरं सरीराओ।
जीवमरूविं कारिं भोयं य सयस्स कम्मस्स॥ जीव उपयोग लक्षण वाला, अनादि-अनन्त, शरीर से भिन्न, अरूपी, अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है।
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