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३८ : जन याग क सात ग्रथ
४७. तत्थ य मइदोब्बलेणं तविहायरियविरहओ वावि।
णेयगहणत्तणेण य णाणावरणोदएणं च॥ हेऊदाहरणासंभवो य सइ सुट्ट जं न बुज्झेज्जा। सव्वण्णुमयमवितहं तहावि तं चिंतए मइमं॥
(युग्मम्) उपर्युक्त आज्ञा का सम्यक् अवबोध न होने के ये कारण हैं१. मति की दुर्बलता। २. उसका अवबोध देने वाले आचार्य का अभाव। ३. ज्ञेय की गहनता। ४. ज्ञान के आवरण की सघनता। ५. हेतु का अभाव। ६. उदाहरण का अभाव।
इन कारणों से सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत अवितथ वचन का सम्यक् रूप से अवबोध नहीं होता। इतना होने पर भी बुद्धिमान् मनुष्य को 'सर्वज्ञ का मत अवितथ है-सत्य है'-ऐसा चिन्तन करना चाहिए।
४९. अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा।
जियरागदोसमोहा य णण्णहावाइणो तेणं॥
जगत् में श्रेष्ठ, राग-द्वेष और मोह के विजेता, अनुपकारी पर भी अनुग्रह करने में तत्पर अर्हत् अन्यथावादी नहीं होते, वे कभी वितथ नहीं कहते।
५०. रागहोसकसायाऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं।
इहपरलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी॥ वय॑परिवर्णी अर्थात् अप्रमत्त मुनि का राग, द्वेष, कषाय, आस्रव आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान व्यक्तियों के इहलोक और परलोक के अपायों (दोषों) का चिंतन करना धर्म्यध्यान का 'अपाय विचय' नामक दूसरा प्रकार है।
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