Book Title: Jain Yoga ke Sat Granth
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ ४२ : जैन योग के सात ग्रंथ ६६. होति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीयपम्मसुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्वमंदाइभेयाओ॥ धर्म्यध्यान के समय पीत (तेजः), पद्म और शुक्ल-ये तीन लेश्याएं क्रमशः विशुद्ध होती हैं। परिणामों के आधार पर वे तीव्र या मन्द होती हैं। ६७. आगम उवएसाऽऽणाणिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं॥ आगम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग-इनसे अर्हत् प्रणीत तत्त्वों, पदार्थों में श्रद्धा करना ये धर्म्यध्यान के चिह्न हैं, लक्षण हैं। दूसरे शब्दों में आगमरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि और निसर्गरुचि-यह चतुर्विध रुचि (श्रद्धा) धर्म्यध्यान का लक्षण है। ६८. जिणसाहूगुणकित्तणपसंसणावियणदाणसंपण्णो । सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो॥ धर्म्यध्यानी वह है जो अर्हत् और साधु के गुणों का उत्कीर्तन करता है, प्रशंसा करता है, उनका विनय करता है, दान देता है तथा श्रुत, शील और संयम में रत रहता है। ६९. अह खंतिमद्दवऽज्जवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। आलंबणाई जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ॥ जिनमत में क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता आदि गुणों की प्रधानता है। इन आलंबनों से मुनि शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है। ७०. तिहुयणविसयं कमसो संखिविउ मणो अणुंमि छउमत्थो। झायइ सुनिप्पकंपो झाणं अमणो जिणो होइ॥ मन का विषय तीनों लोक है। शुक्लध्यान में संलग्न छद्मस्थ मुनि मन को क्रमशः संक्षिप्त करता हुआ उसको अणु में स्थापित कर, निष्प्रकंप होकर ध्यान करता है। केवली अमन होता है, अतः उसके मानस-ध्यान नहीं होता। उसके केवल कायिक-ध्यान (काय-चेष्टा निरोधात्मक ध्यान) होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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