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४० : जैन योग के सात ग्रंथ
५६.
५७.
अण्णाणमारुएरियसंयोगविजोगवीइसंताणं संसारसागरमणोरपारमसुहं
( युग्मम् )
जीव के अपने कर्मों से उत्पन्न यह संसार - सागर जन्म-मरण के जल से भरपूर, क्रोध - मान आदि कषायों से अगाध, सैकड़ों दुःख रूपी श्वापदों से युक्त, मोह के आवर्त्तो से सहित, महाभयंकर, अज्ञान रूपी वायु से प्रेरित संयोग और वियोग के प्रवाह से युक्त, अनादि - अनन्त और अशुभ है - ऐसा चिंतन करे ।
तस्स य सकम्मजणिअं जम्माइजलं कसायपायालं ।
वसणसयसावयमणं
मोहावत्तं
महाभीमं ॥
५८. तस्स य संतरणसहं णाणमयकण्णधारं
५९.
६०.
संवरकयनिच्छिदं वेरग्गमग्गपडियं
आरोढुं मुणिवणिया जह तं निव्वाणपुरं
सम्मदंसणसुबंधमणग्धं । चारित्तमयं महापोयं ॥
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विचिंतेज्जा ॥
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तवपवणाइद्धजइणतरवेगं । विसोत्तियावीइनिक्खोभं ॥
महग्घसीलंगरयणपडिपुन्नं । सिग्घमविग्घेण पावंति ॥
(त्रिभिर्विशेषकम् )
ऐसे संसार-सागर को तैरने में समर्थ वह चारित्र रूपी महान् नौका सम्यग्दर्शन के सुबंधन से युक्त, अमूल्य, ज्ञानरूपी नाविक से सहित, संवर की प्रवृत्ति से निश्छिद्र, तप रूपी पवन से प्रेरित होकर तीव्र गति से चलने वाली, वैराग्य मार्ग में बढ़ने वाली और विस्रोतसिका - दुर्ध्यान की लहरों से निष्प्रकंप है।
मुनि-वणिक् महार्घ्य शीलांगरत्नों से परिपूर्ण उस नौका में आरूढ होकर शीघ्र ही, बिना किसी बाधा के, उस निर्वाणपुरी को पा लेते हैं । ६१.
तत्थ य तिरयणविणिओगमइयमेगंतियं निराबाहं । साभावियं निरुवमं जह सोक्खं अक्खयमुवेंति ॥
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