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संकेतिका
प्रस्तुत ग्रंथ का नाम 'ध्यानाध्ययन', अपर नाम 'ध्यानशतक'। इसके कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाक्षमण हैं। इनका अस्तित्वकाल ई. की ५-६ शताब्दी है। इसमें १०६ श्लोक हैं। अंतिम श्लोक में ग्रंथकर्ता का नाम और ग्रंथ-परिमाण का निर्देश है। यह प्राकृत भाषा में पद्यमय रचना है। आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रंथ की महत्ता को जानकर इस पर टीका लिखी। यह टीका अत्यंत संक्षिप्त और अपर्याप्त है। बाद में किसी आचार्य ने इस पर व्याख्या लिखने का कष्ट नहीं किया, इसका कारण नहीं जाना जा सकता। इसके अध्ययन से लगता है कि प्राकृत भाषा में निबद्ध यह ग्रंथ अत्यंत मौलिक और इतना संक्षिप्त है कि इसका सम्पूर्ण ज्ञान करने के लिए बृहत्तर टीका की आवश्यकता हो जाती है।
आचार्य महाप्रज्ञजी के पास हम इस ग्रंथ का पारायण कर रहे थे। एक बार आपने कहा-'इस ग्रंथ को पढ़ने से लगता है कि इसके रचयिता जैन ध्यान-प्रणाली के विशेष ज्ञाता और पुरस्कर्ता थे। वे स्वयं ध्यान के सैद्धांतिक और क्रियात्मक पक्ष के पारगामी विद्वान् थे। ध्यान के क्रियात्मक अनुभव के बिना इतनी सूक्ष्मता से निरूपण होना असंभव है। जब तक ध्यान सिद्ध नहीं होता तब तक उसके निरूपण में वह सूक्ष्मता या सत्यता प्रगट नहीं हो सकती।'
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