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३० : जैन योग के सात ग्रंथ
आर्तध्यान करते हुए व्यक्ति की कापोत, नील और कृष्ण-ये तीनों लेश्याएं अतिसंक्लिष्ट नहीं होतीं। ये लेश्याएं कर्म-परिणाम-जनित होती हैं।
१५. तस्सऽक्कंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई।
इट्ठाणिट्ठवियोगावियोगवियणानिमित्ताई आर्तध्यान के चार लक्षण हैं :१. आक्रंदन-जोर-जोर से चिल्लाना। २. शोचन-अश्रुपूर्ण आंखों से दीनता दिखाना। ३. परिदेवन-विलाप करना। ४. ताडण-छाती, सिर आदि को पीटना।
ये चारों इष्ट के वियोग, अनिष्ट के योग और वेदना के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।
१६. निंदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ।
पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ॥
आर्तध्यान में व्यक्ति अपने कृत्यों की निंदा करता है, दूसरों की संपदाओं की साश्चर्य प्रशंसा करता है, उनकी अभिलाषा करता है, प्राप्त होने पर उनमें आसक्त होता है और उनको पाने के लिए सतत चेष्टा करता रहता है। १७. सद्दाइविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो।
जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अट्टमि झाणंमि॥
जो व्यक्ति शब्द आदि इन्द्रिय विषयों के आसक्त है, सद्धर्म से पराङ्मुख है, प्रमादी है, जो वीतराग के प्रवचन से निरपेक्ष है, वह आर्त्तध्यान में प्रवृत्त होता है। १८. तदविरयदेसविरयापमायपरसंजयाणुगं झोणं।
सव्वप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं॥
१. यह कथन रौद्रध्यान की अपेक्षा से है।
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