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२. ध्यानशतक : ३१
यह आर्त्तध्यान अविरत ( मिथ्यादृष्टि), देश - विरत (श्रावक) और प्रमत्तसंयत (छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के होता है। यह सभी प्रमादों का मूल है। मुनिजनों (तथा श्रावकों) को इसका वर्जन करना चाहिए ।
१९. सत्तवह- वेह - बंधण - डहणंकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥
निर्दयी व्यक्ति का प्राणियों के वध, वेध, बंधन, दहन, अंकन और मारने आदि का क्रूर अध्यवसाय का होना तथा अनिष्ट विपाक वाले उत्कट क्रोध के ग्रह से ग्रस्त होना रौद्रध्यान का 'हिंसानुबंधी' नामक पहला प्रकार है।
२०.
पिसुणासब्भासब्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाणं ।
मायाविणोऽइसंधणपरस्स
पच्छन्नपावस्स
मायावी, दूसरे को ठगने में प्रवृत्त तथा अपना पाप छिपाने के लिए तत्पर जीव के पिशुन-अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, असत्य वचन तथा प्राणीघात करने वाले वचनों में प्रवृत्त न होने पर भी उनके प्रति दृढ़ अध्यवसाय का होना रौद्रध्यान का 'मृषानुबंधी' नामक दूसरा प्रकार है ।
२१. तह तिव्वकोहलोहाउलस्स परदव्वहरणचित्तं
भूओवघायणमणज्जं । परलोयावायनिरवेक्खं ॥
तीव्र क्रोध और लोभ से आकुल होकर प्राणियों का उपहनन, अनार्य आचरण और दूसरे की वस्तु का अपहरण करने की इच्छा करना तथा पारलौकिक अपायों-नरकगमन आदि से निरपेक्ष रहना, रौद्रध्यान का 'स्तेयानुबंधी' नामक तीसरा प्रकार हैं।
२२.
सद्दाइविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमणिट्टं सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं
चित्तं ॥
शब्द आदि इंद्रिय विषयों की प्राप्ति के साधनभूत धन के संरक्षण के लिए तत्पर रहना, अनिष्ट चिंता में व्यापृत रहना, सबके प्रति
१. तत्र मिथुनादिवचनेष्वप्रवर्तमानस्यापि प्रवृत्तिं प्रति प्रणिधानं 1
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