Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 20
________________ (२) लिए आंख हो, अज्ञानी पुरुषोंके हृदयमें ज्ञानका प्रकाश करनेवाले हो, संसारका उद्धार करनेवाले हों और कलियुगमें भी सत्ययुगके प्रवर्तक हो । इस प्रकार आपकी गुणमाला सुनकर ही मै आपकी शरण माया हूं। हे दयाके समुद्र! आपके अपार करुणासमुद्रमेंसे एक करुणाकी बंद इस तृषित पथिकके लिए भी दान करो । मुझे पूर्ण भरोसा है कि मेरी यह आशा व्यर्थ न जायगी। जबतक आपमें दया है-जनतक यथार्थमें आप करुणासागर कहे जाते हो-तबतक ऐसी आशाके रखनेका मुझे पूर्ण अधिकार है। . . .. . आप दूर हो, इसकी मुझे कुछ चिन्ता नहीं । जो लोग स्थल दृष्टि से देखते है उनके लिए तो आप सचमुच ही बहुत दूर हो । परन्तु इससे मुझे क्यों चिन्ता हो! प्रेममें-उन्नत प्रेममें-अवर्णनीय बल है । उसमें संकीर्णताको जगह नहीं। करोडों कोशकी दूरपिर रहते हुए भी हृदय दूसरी ओर आकर्षित हो जाता है, यह सच्चे प्रेममें शक्ति है । जब मुझमें आपकी भक्ति है मेरा आपपर सच्चा प्रेम हैतब मुझे आपके दूर रहनेका कोई दुःख नहीं। कमल करोडों कोशकी दूरीपर रहता है, परन्तु सूर्यको देखते ही वह विकसित हो उठता है । चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमासे बहुत दूर होनेपर भी उसके उदयके साथ ही द्रवित होने लगती है । तब हे करुणानिधान! आपके दूर रहते हुए भी यदि आपके प्रति मेरा पुज्यभाव है-भकिकी सरलता है तो इसमें सन्देह नहीं कि वह पंज्यसाव-वह भक्ति--आपको मेरी ओर खींच सके । कदाचित् आप यह समझो कि मुझमें वैसा बल, वैसी भक्ति, वैसा पुज्यमान

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