Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 44
________________ (२६) इतनी मी दया करना आप बुरा समझते है। आपके हृदयमें इतनी मी उदारता नहीं है ? अस्तु । आप स्वतंत्र हैं। अपने हृदयके, अधिकारी है। मेरा आपपर कुछ जोर नहीं । हिन्दू रमणियोंके लिए यही आज्ञा है कि वे पतिके कहनेको कभी नहीं टालें । मैं भी इसे पालुंगी । यदि इसमें मुझे और भी अधिक दुःख सहना पडे तो सहूंगी-जीवन देना पडे तो दूंगी। पर आज्ञाका-ऋषियोंकी अमोलिक आज्ञाका--अवश्य पालन करूंगी। मै अबला हूँ फिर स्वतंत्र होकर प्रवला कैसे हो सकती हूं : आहा ! इस धर्मको धन्य है जिसे पालन कर अपना सर्वस्व खो बैठनेपर भी महिलागण उसके पालन करनेमें हिम्मत नहीं हारतीं। मेरा जन्म भी तो उसी कुलमें हुआ है । फिर क्या मै अपने इस तुच्छ और नश्वर जीवनमें उसे कलङ्कित करूंगी ? नही । आहा ! यह पवित्र कुल कितना समर्याद है ! कितनी इसकी धर्मपर श्रद्धा--विश्वास है ? जो मुझ अवलाका साहस भी आन अलौकिक साहसके रूपमें परिणत हो गया है। प्रेमके रत्नाकर ! अच्छा, मेरी प्रार्थना न सुनो। क्योंकि मैं पापिनी हू । मै स्वयं नहीं चाहती कि मेरे द्वारा आपको पापका स्पर्श करना पडे । अच्छा, सुखी रहिए । मै आपके सुखी रहनेकी ईश्वरसे प्रार्थना करूगी और हिन्दू स्त्रीके व्रतका पालन करूगी। हॉ ! एक और प्रार्थना है वह यह कि आप मेरे अपराध क्षमा करना और सदा मु .. ... .....कहते कहते बेचारी कञ्चनका गला भर आया । वह आगे एक अक्षर भी मुँहसे न निकाल सकी। -

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