Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 47
________________ ( २९) कब भारतका पिंड छोडेंगी? कब यहांसे अपना मुँह काला करेंगी : कब यह पतित मारत पीछा उन्नत होगा ! कब इसकी सन्तानके हृदययें ज्ञानका प्रकाश फैलेगा ? कब वे अपनी जन्मभूमिके. उद्धारका उपाय करेंगे ? भारतकी सन्तान ! उठो और अपने पवित्र देशका उद्धार करो। " देखो तो इन कुरीतियोंने तुम्हारी जन्मभूमिकी कैसी बुरी दशा कर डाली है ? वेचारी तारा इसका उदाहरण है। क्या तुम्हें ऐसे घृणित व्य-- वहार और निर्दय अत्याचारोंको देखकर भी दया नहीं आती ? तुम्हारा हृदय देशकी दुर्शशासे नहीं पसीजता । यदिः सचमुच. तुम्हारा हृदय इतना कठोर है-इतना निर्दयी है तो मैं : विश्वास करता हूँ कि तुम्हारे समान कृतघ्नी-परोपकारको भूलनेवाला भी कोई नहीं हो सकता है। ताराके स्वामी पूनमचन्दकी जीवनलीला पूर्ण होगई तब भी वह नहीं जानती कि मुझे किसी आपत्तिका सामाना करना पड़ा है। मुझपर वज्र आकर गिरा है । घरमें रोना मचा हुआ था पर उसके हृद्यमें शोकका नाम निशान नहीं । आखोंमें आंसूकी वृंद नहीं । वह सदाकी भांति अब भी वैसी प्रसन्न है । पाठक ! सच तो है जब वह बेचारी इतनातक नहीं जानती कि विवाह किस चिडियाका नाम है? स्वामी और स्त्रीका क्या धर्म है और उनका क्या सम्बन्ध है ? तब वह क्या समझकर अपने पतिका शोक मनावे ? उसे लोग समझाते हैं कि तू विधवा हो गई है-अब तेरा पति जीवित नहीं है । पर वह जीवित नहीं है इसका यह अर्थ नहीं जानती कि मरा हुआ पीछा आता ही नहीं है। वह इन बातों को क्यों नहीं जानती इसका

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