Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 49
________________ (३१) । मोतीलालके हृदय पर किसी और भुवनमोहिनीकी प्रतिमा अङ्कित होरही थी। वह उसे जी जानसे चाहता था । केसरने भी उस पर आपना प्रेमपाश ऐसा फैलाया था कि उसे कहींसे निकलनेको जगह न थी। उसने अपने मधुर मधुर संभाषणसे उसे अपनेपर मुग्ध कर रक्खा था । उसके खजगञ्जन लोचनोंने अपने कटाक्ष वाणोंसे उसके । हृदयको बहुत कमजोर कर दिया था। उसकी सुन्दरताकी मन मो हनी छटाओंने उसके मनमें अपना पूर्ण अधिकार कर लिया था । फिर भला क्यों वह कञ्चनकी याद करे ? क्यों अपने प्रेमरसको दो भाजनोंमें डालकर अपनेको उसका अपात्र बनावे ? उसे दूसरेकी फिकरसे मतलब? इस पर भी केशरने उससे यह कहलवा लिया था-स्वीकार करवा लिया था कि मै कभी अपनी स्त्रीके साथ प्रेमका परिचय न दूगा । मेरी जीवनेश्वरी तुम्ही हो । मैं सब तरह अपनेको तुम्हें सौंपता हू। तुम्हें इस जीवनका सर्व अधिकार है। उसने ऐसा क्यों किया ? इसके कहनेकी कुछ जरूरत नहीं । कामकी अपार महिमा कौन नहीं जानता । काम वडे बडे विद्वानोंसेभी अधमसे अधम काम करा लेता है तब मोतीलालकी-मूर्ख मोतीलालकी क्या मजाल जो वह उसका अनादर कर सके। कञ्चनका भाग्य इसी कुलकलकिनी केसरकी कृपासे फूट गया है । वह आज आदर्श दुखिनी होगई है । विना विचारे केवल धनके लोभमें आकर जो अपनी कन्याका विवाह ऐसे मूर्खके साथ कर देते है फिर उसकी जो हालत होती है उसका कञ्चन आदर्श उदाहरण है । यह देख कर भी यदि हमारी जातिकी आखें न खुले तो यही कहना चाहिए कि अभी उसके भध पतनमें बहुत कुछ वाकी है।

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