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( १८) अधिवेशनके होनेकी खबरसे एक प्रकारका भय हो गया था। भय क्यों ? यह एक विषम समस्या है । यद्यपि हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस समस्याका हल करना अपने ऊपर एक बला लेकर अपनेको अपराधी वनाना है, परन्तु तव भी अनुरोध वश कहना पड़ता है। __मथुरामें महासभाका जो अधिवेशन हुआ था, उसे हमारे पाठक भले न होंगे। उसमे मनमानी जो जो कार्रवाइयांकी गई वे सबपर विदित है । उसके नवीन कार्यकर्ताओंने सबसे बड़ी यह भूल की है कि उन्होंने उन लोगोंको, जिन्होंने अपने सुख दुःख, हानि लाभकी कुछ परवा न कर महासभाकी पूर्ण रूपसे निष्काम सेवा की थी, अलग कर दिये है । हम नहीं जानते उनका क्या अपराध था ? कौनसी उन्होंने महासभाको हानि पहुँचाई थी ! जिससे वे सभासे अलग किये गये। किस लिये महासभाने यह अन्याय किया? क्या महासभाके कार्यकर्ता इसका समुचित उत्तर देकर अपने उपरसे इस दोपके हटानेकी कोशिश करेंगे ? देशकी जितनी संस्थाएं है उनमें तो कामके करनेवालोंकी जरूरत रहती है पर महासभा उल्टा काम करनेवालोंको अपनेसे अलग करती है, यह क्यो ? इसके गूढ़ रहस्य पर विचार कर यदि हम यह कहें कि सचमुच महासभा अब समस्त जैनियोंकी महासभा न रही तो कुछ अनुचित न होगा। क्योंकि अब उसे एक नया ही जामा पहाराया गया है । इसके अतिरिक्त नियमावलीका अनियम उलट फेर आदि और भी कितनी वातें मनमानी की गई थीं । संभव था कि महासभाकी इस मनमानी कार्रवाईका इस अधिवेशनमें प्रतिवाद किया जाता !