Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 96
________________ ( ७८) हो जाय ? पर हा इतना अवश्य होगा कि दोनों ओरका बहुतसा रुपया तो बरवाद हो चुका है और अभी बहुत होना है । इसीके लिए यह मुकद्दमें वाजीका नवीन सूत्रपात हुआ है। देखते है, हमारे श्वेताम्बर भाई लाखोंपर पानी फेरकर कितनी सफलता प्राप्त करते हैं ! क्या ही अच्छा होता यदि वे अपने दुखी भाइयोंके लिए इस धनका सदुपयोग करते ' आज जैनसमाज दिनपर दिन अज्ञानके गड्ढे में गिरता चला जा रहा है, उसका उद्धार करते 1 यदि हम थोड़ी देरके लिए इस असत्य ही कल्पनाको सत्य समझलें कि पर्वत श्वेताम्बरियोंको मिल गया तो क्या उससे सब श्वेताम्बरी मोक्ष चले जावेंगे और फिर दिगम्बरियों को कभी मोक्ष मिलेगा ही नहीं ? यह कितने खेद की बात है कि एक ओर तो जैनधर्मकी इतनी उदारता कि वह संसार भरको अपने उदरमें रखने की शक्ति रखता है ओर दूसरी ओर उसके धारकोमें इतनी अनुदारता - इतनी संकीर्णता कि वे सर्व मान्य स्थानको केवल अपना ही आराध्य बनाना चाहते हैं ? यह तो वही हुआ कि किसी जैनधर्म स्वीकार करनेवाले अन्यमतीको यह कहना कि जैनधर्मक ग्रहण करनेका तुम्हें कुछ अधिकार नहीं है । वह हमारी मौरुसी सम्पत्ति है । पर यह समझ भूलभरी है । और इसीसे हमारी जातिका सर्वनाश हुआ है । अत्र हमें इन झगडों का समाजसे काला मुहॅ करना चाहिए। हमारे पास पैसा बहुत है तो उसे इसतरह व्यर्थ नष्ट न कर उसका हमें सदुपयोग करना चाहिए । जरा जाति की हालत देखने के लिए आखें खोलो, तर जान पडेगा कि हम इसी पिशाचिनी फूटसे भीतर ही भीतर कैसे चुने जा रहे है । जैनधर्म शान्तिमय धर्म है। पर आश्चर्य है कि हम उस शान्तिको-प्यारी शान्तिको - भूले

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