Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 95
________________ ( ७७ ) ८-क्या जैनसमाजका सुधार होगा? एक ओर तो इसके शुभचिन्तकोंका यह प्रयत्न चल रहा है कि जैनसमाज एकताके पवित्र बन्धनमें वधकर अपने लिए उन्नतिका मार्ग सरल करे और दूसरी और कुछ कुलकलंक इसे और भी पतित करना चाहते है। वे दिनपर दिन इसके उन्नतिके मार्गको विषम बना रहे है। जहा देखो वहां आपसमें-भाई भाईमें-साधारण साधारण वातोंके लिए ईपी और द्वेषकी आग्नेि भड़काना चाहते है। एक स्थान ऐसा है जहा मिलकर और शान्तिके साथ काम किया जाय तो उससे किसीकी हानि नहीं होती और न द्रव्य और समयका दुरुपयोग होता है । पर न जाने यह शान्ति उन्हें क्यों अच्छी नहीं लगती है। क्यों उन्हें एक एक दानेके लिए ठोकरें खाते फिरते अपने भाइयोंपर दया न आकर अदालतोंमे लाखों और करोंडों रुपयोंपर पानी फेरना अच्छा जान पड़ता है? क्यों वे अपने ऋपियोंके " स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनायोपैतकैतवा । प्रतिपत्तियथायोग्य वात्सल्यमाभलप्यते ।। अपने भाइयोंके साथ छल-कपट-रहित पवित्र भावोंसे प्रेम करना चाहिए, इन पवित्र वचनोंको भूल गये क्यों उन्हें अपनी इस भूलपर खेद नहीं होता पाठक ! आपने पढ़ा होगा कि सम्मेदशिखरपर्वतपर अपना हक्क सिद्ध करनेके लिए हमारे कुछ श्वेताम्बरी भाइयोंने दिगम्बरियोंपर मुकद्दमा चलाया है । हमें इसमें पूर्ण संदेह है कि वह पर्वत केवल श्वेताम्बरियों अथवा केवलं दिगम्बरियोंके हाथमें आकर उसपर एकका मौरुसी हक्क

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