Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पुस्तकालय वनारमका जैनतिथिदर्पण | वीरनिर्वाण संवत् २४३९ का | नृत्य )|| आना डाक सर्च ५ तक )|| धर्मप्रश्नोत्तरवचनिका | यह ग्रथ सकळकार्त्ति आचायकृत संस्कृतमें है जिसका दूसरा नाम प्रश्नोतरश्रावकाचार भी है उसकी सरलवचनिका श्रीयुतपडित लालारामजी से कराई गई है। इसमें दशलक्षणधर्मपृच्छा, श्रावकधर्मपृच्छा, रमत्रयमोक्षमार्गपृच्छा, तत्वपृच्छा, कर्मविपाकपृच्छा और सज्जनचित्तवल्लभपृच्छा इसप्रकार ६ अध्याय हैं जिनमें ११२१ प्रश्न और उनके सविस्तर उत्तर हैं । सर्वदशी सय भाइयोंके समझनेयोग्य स्वाध्याय करनेकेलिये बहुत ही उपयोगी ग्रंथ है । इसमें कागज इतना मोटा लगाया है कि वैसा कोई नहीं लगाता । अक्षर डे और सुदर निर्णयसागर की टाइपमें छपा है । निल्दसहित २६८ पृ. न्यो २) है । सर्वप्रकार की पुस्तकें मिलनेका पताश्रीलालजेन मैनेजर जैन पुस्तकालय बनारसमिटी । Printed by Gauai Shanker Lal Manager, at the C P Press, Benares Published by Shri Lal Jain Benares Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिले इसे पढ़िये। १। हमारे यहासे-व के निर्णयमागरप्रेस, श्रीवेक्टेश्वरप्रस, लक्ष्मीवेक्टे. श्वरप्रेस, ज्ञानसागरप्रेस, हरिप्रसादमगीरथजीपुस्तकालय, तथा कलकत्तेके जीवानन्द विद्यामागर, इलाहावादके इडियनप्रेस, लखनऊके नवलकिशोरप्रेस और काशीकी नागरीप्रचारिणीसभा, स्याद्वादग्न्नाकर कार्यालय चौखंभापुस्तकालय, लाजरसप्रेस, उपन्यासकार्यालय, उपन्यासतरग, भार्गवपुस्तकालय आदि समस्त छापखानों और पुस्तकालयोंक छपहुये समस्तप्रकार के हिंदी सस्कृत प्रय ठोक • भावसे मिलत हैं अर्थात् वपईकी पुस्तके बबईके मात्र कलकतंकी पुस्तकें ककत्तेके भावसे मिलती हैं । जिनको जिसप्रकारको पुस्तके चाहिये हमारे यहास मंगा लिया करै । २। हमारे यहास किमीको भी कमीशनहिं दिया जाता किंतु खासको। छपी तथा स्याद्वादग्नाकर कार्यालयकी पुस्तके एक प्रकारकी पाच लेने पर | एक विना मूल्य भेजी जायगी। ३। मगाई हुई पुस्तके वापिस नहि ली जायगी। ४ । वी पी. माठ आनेसे कमका नहिं भेजा जाता | आठ भानेसे | कम लेनेवालोंको डाक खर्च सहित टिकट भेजना चाहिय । ५। जो महाशय वी.पी. वापिस कर देंगे उनको फिर कभी वी पी नहि भेना नायगा हिमाव में भूल हो तो डाक खानमें अजा देकर २१ 1 दिन तक वी पी को रुकवा सकते हैं । फिर चिट्ठा देकर हमसे भूल सुघरवालें।। फरमायसमेंमे जितनी पुस्तकें तैयार होंगी-बाजार में मिलेंगी उतनी | ही भेनदी जायगी। दो एक पुस्तकालये वी पी रोका नहिं जायगा। । पत्र-नाम, ग्राम पोष्ट जिरा नहित साफ हिंदीमें भेजेंगे तो उस की तामील म घ्र ही होगी अगरेजी उटू वगेरहकी, चिड़ियोंकी तामील हाने में प्रमाद होगा । उत्तर च हना हा तो जत्रा क ह वा टिकट भजा। आपका कृपाकांक्षी श्रीलालजैन, अनजा-जैनपुस्तकालय पो. बनारम सिटी। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतिथिदर्पण वीरसंवत् २४३९। ई. १९१२-१३ - - कार्तिकशुकधारनि २४३९। मार्गशीर्षकृष्ण वीर मं २४३९ । ति | वार ता. विशेष विवरण | | वार ता| विशेष विवरण गय ५० नवेंवर ज्ञानयुप्पदत १ सोम २५/ रोहिणीद्रत । सोम १० . मगल ६. मगल ३ बुध 00 ४ । गुरु १५ गर्भ-नमिनाथका 1.नि दिसंबर १९१00 रवि अष्टाहिंकाप्रारम ९ । माम 15 मोम 10 मगल 3/ तर-महावीरम्बामा 110मगठ१९ युघ १३ जान-अरनायका शुक्र जन्मनप-पत्रमका १४ नि १५'रवि जन्म-समयनायका दिनका चौघहिया। वग्राम | रात्रिका चौरड़िया। चद्रग्रहण रचमबु गुशुःश | फाल्गुणशुला १५ चमवु गु शुश चाका शनिवारका ३० से चकाउरोला शु ७ बने तफय रोला शुचकाउ लाच कारणे प्रामचका उपरोला शु यारोला/च,का/उ) चंद्रग्रहण लाशुच का उम कायापलाच भादपदशमः१५ काउयारोला शु ला सामवारको ३॥से उरोला शु| 'च का ७ बजे तक श Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - मार्गशीर्षशुक्ल वीर सं २४३९ । पौषकृष्ण वीर सं. २४३९ । ति, वार ता. विशेष विवरण ति. दार सा. विशप वियन्न - - - - - ५/ मान-मालनायका मोम) जन्मतप-पुष्पदत 1१. मगल[१० दिसवर वुध ११ २ शुक्र शनि रवि माम बुध १० - - मगल:१ वृध ! जनवरी १९१३ प्रा गरु असलबन्मतप-चद्रप्रम वा पार्श्वनाथ ৭ হজ •• অন-লাও रविरोहिणीनत । १० शनि [नान नामनाथ" सोम जान-शीतलजिनका। १३. रवि ३० मगल जन्मतप-अरनाथ 10 मगला तप-मभवनायका - जिनशतक। यह प्रथ वि स १२५ को सालम विद्यमान आचार्यवर्य श्रीमत्समतलभद्र स्वामीकृत चित्र काव्यका है इसमें ११६ लोक हैं सबके सब लोकाके मुरज आदि चित्र बन जाते हैं चित्र भी अतमें दिये गये हैं। विना टीकाके इनका अर्थ कोई लगा नहि सकता इसकारण साथमें मरमिहभटकृत संस्कृत टीका और श्रीयुत प लालारामजीकृत भापाटाका भी छपाई है। ११६ श्लोकोंमें चौवीस तीर्थकर भगवानकी स्तुति है। निनके पदपदसे भक्ति टपकती है | पृष्ठ १२८ न्योछावर ) है। मिलनेफा पता-श्रीलालजैन - . . मैनेजर-जनपुस्तकालय बनारसं सिटी। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतिथिदर्पण वीरसंवत् २४३९। ई. १९१२-१३ बुध २७/ . १२ . कार्तिकशुक वीरनि. २४३९ । मार्गशीर्षकृष्ण वीर सं. २४३९ । ति. वार ता. विशेष विवरण ति. वार ता. विशेष विवरण २ राव |10 नवेंवर । ज्ञानपुष्पदंत १ / सोम २५ रोहिणीव्रत । सोम/११ मंगल/२६ मंगल ११ बुध १३ ५ शुक्र २९/ ৭ ম-ললিনাকা ६ शनि दिसंवर १९१२॥ का रवि अष्टाहिकाप्रारंभ ९/सोम १० मंगल ३ तप-महावीरखामां मंगल/११/ ११/ बुध २० ६२/गुरु २१/ ज्ञान-अरनाथका |१३| शुक्र ६ ५३ शुक्र २३/ जन्मतप-पद्मभका १४ शनि २३ १५ रवि २६ जन्म-संभवनाथका दिनका चौघड़िया। . खग्रास | रात्रिका चौघड़िया। चंद्रग्रहण रचं मं बु गु शुशिफालगणशका१५ र चमं बु गु शु। चका शनिवारको ३० से शु शु| ७ बजे तफ अ ला शुचं का आरो । खग्रास चंद्रग्रहण का उयाणेला शुचं भादपदंशुक्ला१५ काउ अगला शु सामागला सामवारको सेला शु/चं का उ रोला शुचं का उम उरोला शु चंका ७ बजे तक शुचंका/ उराला .6mm. 서 च पेला शुचं काउ 4 | 외 44.बबबब 1월 월 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] | माघशुक्ल वीर सं.०४३९ । | फाल्गुणकृष्ण वीर सं. २४३९।। चार ता| विशेष विवणर ति चार ता. विशेष विवरण 10 फरी २रा २१ - - शुक गान राव - cms and - 12. - | रवि २३ सोम १० जन्मतप-विमलनाथ ४ सोम २४ मोक्ष-पद्मप्रभका मगल/११ बुध १२ जान-विमलनाथका बुध २६) ज्ञान-सुपार्श्वनाथका गुरु १३ २७ ज्ञान-चद्रप्रम-मोक्ष, [सुपार्श्वनाथका रोहिणी व्रत। | मार्च गर्भ पुष्पदत' १६) जातप अजितनाथ/१० ११ सोम १७ ११/ सोम३ || जन्मतप-ज्ञान . मगल/१०/ जन्मतप अभिनदन १२ मोक्ष-मानसुव्रत १३ बुध १९ जन्मतप-धर्मनाथका ५३/ बुध ५ गुरु । जन्मतप-वासुपूज्य ० शुक्र 0 * ११ को जन्मतप-श्रेयासनाथका और ज्ञान-आदिनाथका ! बबईके छपे शुद्ध जैनग्रंथ । जैनवाल वोधक प्रथम भाग 1 शीलकथा दानकथा ।) दियातले अधेरा On दर्शनकथा) निशिभोजनकथा) समाधिमरण दो तरहका ) रविव्रतकथा भाऊ कविकृत ) अरहंतपासाफेवली सदाचारीवालक भक्ताभर माषा और मूल संस्कृत) 'पचमगलरूपचन्द्रीकृत शुद्धपाठ) दर्शनपाठ बुधजनकृत दर्शनसहित) ___ मृत्युमहोत्सव वचनिकासहित ) शिखरमाहात्म्य भाषा वचनिका) निर्वाणकांड प्राकृत,भाषा महावीरका सामायिक पाठ, आलोचनापाठ) सामायिकपाठ भाषाटीका विधिस) कल्याणमदिर एकीभाव भाषा) आरतीसग्रह जिसमें ११ आरती) छहढाला दौलतरामकृत वड़े ॥ इष्टछत्तीसी अर्थसहित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुणशुक्ल वीर सं २४३२, नि 'अ' ७-८ यार ता विशेष विवरण नि । वार ता मार्च रा शनि . रवि नोम |१०| मंगल | ११ | गर्म - अरनायका बुध (१२, गुरु (१३ मोक्ष-मलिनाथका शुक्र १८ रोहिणी व्रत शन रवि सोम १७ [५] १० ११ मंगल १२। युध १ १३ गुरु १४ शुक १५॥ शान होलिया । चद्रग्रहण | 27 चैत्रकृष्ण वीर सं. २४३९ । विशेष विवरण छहढाला मान्न अक्षरी धानतकृत) उडान युनजनकृन वढ़ अक्षर ) पुराने काव १ ज ) करावकाचा सान्ययार्थ) उस्का उभावकाचार बनाना पडा () मोक्षमार्गप्रकाशनवचनिक १॥ll) प्रद्युम्नचरित्र वचनिका 2111) बनारसीविलाम कवित्तवद्ध १ ) वृंदावन विठाम 10) भाषा पूजामग्रह II) १ रवि २३ साम . रवि मोक्ष चंद्रप्रभ गर्भ मनवनाथ ९ मोम (३१) का अट्टान्दिका १ १०, मंगम १ प्रारम 5 3 मंगल. २५ [तनाथ ● बुध ०६ ज्ञान पार्श्वनाथ मोक्ष, अन Կ गुरु ११७ गर्म च 3 शुक्र २८ शान ११, बुध १२, गुरु १३ शुक्र १४ ज्ञान ↓ ११० राव -चंद्रप्रका गर्भ-शीतलनाथका जन्मतन- आदिनाथ अप्रल ८ था । ज्ञान-अनननाथका मोक्षशास्त्र तस्वार्थसूत्र मूलशुद्ध-)॥ मुनिवशदीपिका नयनसुखजाकृत ) ॥ सामाजिकचित्र १ टकी कहानी ) विनतीसग्रह ( २८ विनतिया ) =) वाक्टायनप्रक्रियासमह व्याकरण 31 पार्श्वपुराण चोपवध प्रवचनसार कवित्तवद्ध धूर्त्तास्यान पुराणोंकी हँसी 1) 91) ) नित्यनियमपूजा सस्कृतभाषा 1) मनोरमा || ) ज्ञानसूर्योदयनाटक II) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [:६ ] चैत्र शुक्ल वीर सं २४३९। 'वैशाखकृष्ण वीर सं २४३९।। ।' | यार ता विशेष विवरण सि. वार ता. विशेष विवरण सोम गर्भ-मलिनाथा २) मगल) गर्भ-पाश्वनाथका ज्ञान-कुथुनाथ सोम - मगर - ३ गम .....sk w.. रवि ५३ २८ राहिणी । मोक्ष५ शुक्र शनि मोक्ष समवनाम शनि रवि २७ सोम १४ सोम | मंगल/१५ मलग २९ ज्ञान-मुनिसुव्रत । 'बुध १६/ (अरनाथ मोक्ष१० बुध ३० जन्मतप " | गुरु १७ज तशा मो०१० गुरु १८ मई ५ वा १२-१३ शुक्र १८ ज.महावीरखा १ शुक्र | १४ | शनि १९) १०) शनि १५ | रवि 0 जान-पद्मप्रभ रवि । मोक्ष-५ को आजतनाथका १११ को १ सोम | मोक्ष-नमिनाथका सुमतिनाथका -जन्म तप ज्ञान मोक्ष :- मगल | तत्वार्थसूत्र वालपोवनी भा टी In) जैनपदसग्रह पनि दू) नी) भकामरस्तोत्र सान्वयार्थ , " जैनपदसग्रह चौ.-17) पा ) द्रव्यमाह मात्वयार्थ कवित्त ।) ज्ञानदर्पण आध्यात्मिक कवित्त ।। सूकमुकायली सान्धयार्थ" 1 अकलकदेवचरित्र स्तोत्र भाषाउद श्रताषतारकथा श्रुतपचमीपूजन) भूधरजैनशतकापचेंद्रियसवाद) क्षत्रचूड़ामणि भाषाप्टीका सहित) उपमितिभवप्रपचाकथा प्र. खं ॥) जैनविवाहपद्धति विधिसहित ) वारसअणुवेक्खा कुदकुंदकृत भा.) दि जैनप्रथकती व उनके प्रथ) पुधजनशतसई ७०० दोहे ) भाषानित्यपाठसप्रह रेषामी गुण क्रियामजरी,विधिसहित ) सबनचित्तवल्लभ मा कवितास) सप्तव्यसनचरित्र वचनिका छ) नैनसिद्धातप्रवेशिका पुरुषार्थसियुपायसार्थ ) 11. - पता-श्रीलालजैन मैनेजर-जैनपुस्तकालय बनारस सिटी। - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ..... . ..... . - . [ ७ ] वैशाखशुक वीर मं २४३९।। ज्येष्टकृष्ण वीर सं २४३९ । | वार ना विशेष विवरजत वार ता. विशेष विवरण जन्मतपमोम गरु रोहिणीत १९ भक्षयनीया भनि.१०॥ रवि ११०मो अभिनटन ७ सोम । साम भगल गर्म-धर्मनापका . , नगर .. Pe गर्म-श्रेयासनायका गुरु १५ शन-महावीर खा. 13. गर्म-विमरनाथ "शान 50 ५ गनि 10 जून । जन अनंतनाय १४ खोन' : माम. १५/ मगल ३० १४ मंगल, जम्मतपमोक्ष । 2. बुध || रोहिणी गर्भ जित बन्मनप-मोक्ष १ को फयुनाया | जन्मतप मोल १४ को शातिनाथका ।। जनतत्वप्रकाशिनीममा इटावाकी ट्रेक्ट । कार्यमतीला) मकदा २४) आर्योका तत्त्वज्ञान ) से 7) ईश्वरका कर्तृत्व )। म.) कुरीतिनिवाग्ग )। से. १) मजनमहली प्र भाग ) (द्वि. भाग 1 से जीनयों के नाम्निस्वपर विचार )। से 1) धर्मामृत रसायन ) से .) वष्टिकर्तृवनीमापा ) मै ५) भूगोल्मीमामा )। नानोको प्रत्याशाबार्षअजमेरका पूर्वरग) म. १४) जैनधर्मप्रचारिणीसभाकाशीकी ट्रक्टें। सनातनजनधर्म ) मै ) श्रीमहावीरस्वाना )। मे, २) इलादि । मिलनेका पता-श्रीलालजन मैनेजर-जैनपुस्तकालय वनारस मिटी। areename Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्येष्ठ शुक्ल वीर सं २४३९ । ति. वार. ता "विशेष विवरण गुरु ५ शुक्र | ६ शनि ७ ८ १ < ] आषाढ कृष्ण वीर सं. २४३९ । विशेष विवरण मोक्ष- धर्मनाथका श्रुतपचमी * ति वार. ता १गुरु |१९| २ शुक्र | २० ३ | शनि २१ ४ रवि ०२ ३ रवि ५ सोम । ९ ६ मगल, १० ७ बुध ११ ८-९ गुरु १२ गुरु २६ १० शुक्र १३ ११ शनि १४ ८ | शुक्र |२७| ९ | शनि |२८| १२ | रवि १५ / जन्मत पसुपार्श्वनाथका १० वि २९ जन्मतप नमिनाथ १३ सोम १६ १४ मंगल १७ १५ | बुध ०८ * इसदिन शास्त्रपूजा, शास्त्रदान शास्त्रोंकी संभाल करनाचाहिय । गर्भ-आदिनाथका सोम (२३) ६ | मगल २४ गर्भ वासुपूज्य और बुध २५ मोक्ष विमलनाथ ११ सोम ३० १२ मंगल १ १३ बुध ३ | १४ | गुरु |३०| शुक्र ८ जुलाई ७ वा रोहिणवत चरित्रगठन | कैसा ही कोई बुरे आचरणोंवाला क्यों न हो जो इसे एकबार पढेगा उसी घडीसे अपने आचरण सुधारनेकेलिये तैयार हो जायगा । इतना ही नहीं, उसे अपने बुरे आचरणोंपर घृणा हो जायगी और फिर वह कभी उन का नाम भी न लेगा । लोग अपनो सतानको शिक्षित और सच्चरित्र चनाने केलिये हजारों रुपया खर्च कर डालते हैं तो भी सफल मनोरय नहीं होते हैं ऐसे लोगोंको अपनी सतानको यह पुस्तक देकर परीक्षा करना चाहिये । जो नवयुवक विद्यार्थी अपना चरित्र उत्तम बनाना चाहते हैं उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढना चाहिये । इससे मनुष्य अपने समाजमें आदर्श वन सकता है. हिंदीमें यह पुस्तक एक रन हैं । पृष्ठ २३२ मूल्य बारह आना । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ . [ ९ ] आषाढ शुक्ल वीर सं. २४३९ । श्रावण कृष्ण वीर सं. २४३९ ।। ति. वार. • विशेष विवरण ति. वार. ता विशेष विवरण - - ११ शान 400. ४ मंगल २ वि २०. गर्भ-मुनिसुनतका ३ सोम २१ | गर्भ-महावीरखामी ५ युध १० . गुरु २४ ११) मो. नेमिनाथ अटा- शुक २५ १२ [न्हिका प्रारंभ ८ शान २६ :00 Grk 33. G" रचि २७ 22 - - १० सोम २० गर्भ-कुंथुनाथका मंगल/२९/ रोहिणी नता १२ बुध १३) गुरु ३१ १४ शुक्र१ अगष्ट ८ वां १५.शान। .. दिलचस्प ऐयारीके उपन्यास । चंद्रकांता चारों भाग बढे अक्षर २) चंद्रकांता चारों भाग गुटका छोटे अक्षर १) चंद्रकांतासंतति यडे साइजमें २४ भाग १२) चंद्रकांता संतति २४ भाग गुटका ) भूतनाथकी जीवनी चंद्रकांतामें जिस भूतनाथका नाम आया है उसका अद्भुतचरित्र पांच भागोंमें ३॥) मोती महल १) कुमुमलता ऐयारी और तिलस्म 2) दो नकावपास २) नरेंद्रमोहिनी उपन्यास १) कुसुमकुम्गरी १) पिशाचपुरी ||- चंद्रमुखी ॥ सूर्यकांता ) ये सब ऐयारीके उपन्यास एस दिलचस्प हैं कि एक बार हाथमें लिये वाद पूरा किये बिना पुस्तक हाथमेंमें नहिं छुटती । खाना पीना वा जरूरी काम भी उसको यांचकर ही करने पढ़ते हैं। झूठ समझते हैं तो १) का चद्रकांता उपन्यास ४ भागका गुटका मंगा देखिये। फिर क्या मजाल है जो '२४ भाग संतति और ५ भाग भूतनाथकी जीवनी न देखें। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवि 1३ Mo.m.. मगल २६ १३| गुरु १४ । १० । श्रावण शुक्ल वीर सं २४३९। भाद्रपद कृष्ण वीर.सं. २४३९ । ति. वार. ता] विशेष विवरण | ति । चार ता विशेष विवरण १ विज सोलहकारण प्रा सोम गर्भ-सुमतिनाथका . सोम १८ ज्ञान-वासुपूज्य मगल ५ छोटी तीन मगल १९/ | वध |२० गुरु ७ जन्मतप नेमिनाथ ४ । गुरु २१ चौवीसीव्रतप्रा. मोक्ष-पार्श्वनाथका शुक २० शनि २३ रवि २४) गर्भशातिनाथ सोम २५/ रोहिणी व्रत। ११) मगळ१२ १२/ बुध १३ गुरु १४ शक १५ १२-१३/ शुक्र ०९ १५/ शनि १६ राखी पू. मोक्ष- १४ | श्रेयासनाथका १० । रवि ३१ जासूसी (गुप्तपुलिसके) उपन्यास । कटोराभर खून 1-1 गुप्तरहस्य ॥8) खूनमिश्रित चौरी ॥) कटाशिर ॥) विकट वदलौवल सचित्र १) सन्चा बहादुर ४) मायावी ॥) जुमलेया।) दो वहिन ॥) खून २) लाइनपर लास २) विलायती जासूस १) अद्भत । खून २) अद्भत आमूस २) हत्यारहस्य १) गोविंदराम ॥) जासूम चकर में 11) दारागाका खून ॥) लाखरुपया ॥२) खूनीका भेद ) प्रतिज्ञापालन।) मनोरमा जादूगरनीकी जासूसी -) परिमल II) अजीवलाश ।) पद्मावती ।' ॥) हमीना ॥) हम्मामका मुरदा क) देवीसिंह विकट जासुस २) चद्रशाला १) नकलीरानी।) विचित्रखून 17) नोलखाहार) लगडालनी) तातियां भील हत्याहस्य .) चौरसे बढकर चोर ) जिंदेकी लास) दोखून ) अबदुलाका खून =) . .. । पता श्रीलालजैन मैनेजर-जैनपुस्तकालय बनारस सिटी। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - [ ११ ] माद्रपदशुक्ल वीर सं २४३९ । आश्विन कृष्ण वीर स.२४३९ ।। धार ता. विशेष विवरण त. / वार ता विशेप विवरण सोमसितवर,लव्यवि.प्रा. मग १६ पो का फलसा | वुध 10 गभ नेमिनाथ राटतोजयत गुरु ०८ शुक्र . GANA गान.. - - - द. - ५३ - पु. द. व्रत प्रारभ । ५ .' गर्भ सुपाश्रनाथ ६ रवि राव , , निप नुकावाली सोम रोहिणीवन । मगल . बुध १५० सुगध दशमी गुरु ,११ अनतग्रत प्रारभ ११ शुक्र १० रनत्रयकानीव्रत १० : शनि १३, १० वि १४ अ.च०मो वासुपूज्य' १४ | साम | 12. सोम १५ चप्राण। ३०-१| मगर ३० ज्ञान-नेमिनाथका अच्छे २ दिलचस्प उपन्यासोंके नाम । फिटेको रानी ) कालीनागिन समाजका अनूठा चित्र १) जीवनप्रभात १) जीवनसध्या ॥1) देवी-बानू वकिमचद्रकी देवीचीवरानी १) नरपिशाच ( रेनल्डका उपनाम) ३) माधवी माधव • अयमें अनर्थ १) विषवृक्ष १)। रमा और माधव ॥) लखनऊकी कद्र २) ससार चक्र १) ससारदर्पण २) सूर्यकाता उपन्यास ॥) चद्रलोककी यात्रा 1) नूननचारत्र १ डबलवीवी In) वटा माई तीन पतोह १) भोजपुरका ठगा (तसलवा तोरकी मोर) ॥) दुर्गेशनदिनी 1) नवाचादनी दुर्गेशनटनाका परिशिष्ट क्या सरित्सागर १६ भाग ८) उपन्याम भटार २. छोट २ उपन्यास II) किसानकी बेटी 1)। श्रीलालजैन मैनेजर जैनपुस्तकालय, दनारस न्टिी । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - माश्विन शुक्ल वीर स.२५३९। कात्तिकृष्ण वीर सं २४३९ । वार ता विशेष विवरण | ति. वार ता. विशेष विवरण 19 अक्टवर १० वा गुरुE गर्भ-अनतनाथका - هه ه शुक्र १७ س Inmy-20 ه रोहिणी । ज्ञान(सभवनायका م - ८) मंगल ९ बुध गुरु - मोक्ष-पुष्पदत और गीतलनाथ विजय दशमी। FEEEEEEE ८ -१ वध १५ १३ वि१२ १३ सोम १३ मगल १४ मगल १४ ./ वीरनिवाणं दीपी त्सव । बालकोपयोगी पुस्तकें। हितोपदेशभाषा टीका सहित १) चालविनाद पाचों भाग (तस्वीरें उपदेश) १) लड़कोंका खेल ८४ चित्र हैं -|| खेलतमासा चित्र मयकविता के) सचित्र अक्षरलिपी ) जैनबालवोधक प्रथम भाग 1) वालयोध जैनधर्म १-२-३ माग ) चौंथाभागा-) हिंदीको पहिलो दूसरी ।) तीसरी 1) विश्वलोचनकोश (जैनकोश) मा टी स, अमरकोपभाषा टीका सहित ११) ऋद्धि धनकुमानेकेलिये कल्पवृक्ष १) सम्पत्तिशास्त्र धनकमानेके उपाय २) स्वामी और स्त्री शिक्षा २१) बच्चोंकाखिलौना 1-) बालस्वास्थ्यरक्षा ।) वालोपदेश ।) वालहितोपदेश ॥) वालपचतत्र ) पालहिंदीव्याकरण १३६ पृष्ठ । पता-श्रीलालजैन मेनेजर जैनपुस्तकालय वनारस सिटी। । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्थादादग्रंथमाला। स्वादादपंधमालामें सरप्रय भाषा, वा भाषाटीका साइत छपते है। वार्षिक न्योडावर ५) १० है डाकखर्च जुदा है सो प्रत्येक सक डाफखर्च मानके वी. पी से भेजा जाता है । पाच रुपयों में ९० फारमतकके प्रथ भेजे। जाते हैं। एक फारममें वदे रहे ८ छेटे छोटे १६ पू होते हैं। हाल में तीन प्रपर गये। जिनशतक सस्कृत तथा भाषाटोसहितफारम १९८ न्यो) का धर्मरत्नोघोत चौपईवध फारम ध १८२ । न्यो०१९ धर्मप्रश्नोत्तरवचनिका का न ३४ र २६८। चौथा प्रथ सान्वरार्थ व भा. वार्थसहित तत्वासार उपंगा । हारमें धोजादिपुरागजी सत्कृत लौर वचनिकाबहुत ही सुदर रहे हैं। जिसके अनुमान २५० फारम वा२०..पृष्ट होंगे यह प्रथ भी हरमहीने जितना पता है सबको भेजा जाता है । ९० फारम । परेहुये बाद फिर सबको ५)रु भेजे होंगे। जिनको नये २मयोको खाध्याचरना है ५)रु भेजकर वावापानरल्लेि प्रयनगाकर ग्राहक रन जावें। सनातनजैनग्रंथमाला। इस अपमान में सव प्रथ सस्कृत प्राइन व संस्कृतीफासहित उरते है । यह प्रथमाला प्रचीनप्रथाका जीर्जेदारकरके सर्वसाधारणमें जैनधर्मा प्रभाव प्रकट करने की इच्छासे प्रगट की जाती है । इसमें सब विषयोंके प्रय रेंगे। हालमें लाप्तपरीक्षासटीक, समपसारनाटक दो सस्कृतटीकासहित, र रहे है। इनके पक्षात रविषषशाचार्यकत परामजी वा राजतिक्जी रेंगे। इसको वार्षिक न्यावर • है। प्रलेसक १० फरमका होगा। जिसमें दो से अधिक प्रथ नहिं होंगे। डॉक खर्च जुदा है सो प्रत्येक नक डाक खर्च के वी पीसे भेजा जायगा। यह प्रयमाला जिनधर्मका जीपोद्धार करने वाला ई-इसका प्राहरू प्रत्येक जैनी भाई मंदिरजी सरस्वतीभारको बनकर तप प्रय सग्रह करके सरक्षित करना चाहिये और धनोरमा दानवीरोको इाप्रपनगार अन्धनतीविदुनो पुस्तालयाको वितरण करना चाहिये। पता-पन्नालाल बाकलं वाल मालिक-स्थाद्वादरत्नाकरकार्यालय, पोह-पनारस सिटी। - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] संस्कृत और नवीन हिंदी अनुवाद सहित श्रीआदिपुराणजी छप रहे हैं । न्योछावर १४) रु. डाक खर्च जुदा । इस ग्रंथ के मूल श्लोक अनुमान १३००० के हैं और इसकी वचनिका जयपुरवाले पांडत दौलतरामजी कृत २५००० श्लोकों में बनी हुई हैं । पहिले इस वचनिका के छपानेका विचार किया था परंतु मूल प्रथसे मिलाने पर मालूम हुवा कि प. दौलतरामजी ये पूरा अनुवाद नहिं किया । भाषा भी ढूंढाडी है सब देशके भाई नहीं समझते इसकारण अतिशय सरल सुंदर अतिउपयोगी नवीन वचनिका बनवाकर छपाना प्रारंभ किया है। वचनिकाके ऊपर सस्कृत श्लोक छपनेसे सोनेमें सुगध हो गई है। आप देखेंगे तो खुश हो जांयगे । इसके मूल सहित अनुमानं५२००० श्लोक और२००० पृष्ट होगे इतने बढे ग्रंथका छपाना सहज नहीं है हर दूसरे महीने ८०-१०० या १२५ पृष्ठ छपते हैं सो हम आजतक छपेहुये कुल पत्रे भेजकर ५) रुपये मगा लेंगे, उसके बाद हर दूसरे महीने जितने पत्र छपेंगे भेजते जायगे ७२० पृष्ट पहुचनेपर फिर ५) रु. पेशगी मगा लेंगे। इसीतरह ग्रंथ पूराकर दिया जायगा । यह प्रथ ऐसा उपयोगी हैं कि यह सबके घरमें स्वाध्यायार्थ बिराजमान रहे । यदि ऐसा नहीं हो सकै तौ प्रत्येक मंदिरजी व चैत्यालय में तो अवश्य ही एक २ प्रति मंगाकर रखना चाहिये । 2 P पत्र भेजने का पता - पन्नालाल बाकलीवाल, मालिक - स्याद्वादरत्नाकरकार्यालय बनारस सिटी । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यवादी। सत्य एक अपूर्व रत्नाकर है, नो इसमें अवगाहन करते है, उन्हें अलभ्य रत्न प्राप्त होते है । प्रथम भागअगहन, पौष श्रीवीर नि. २४३९ अंक WAM ~ - श्रीसीमन्धरस्वामीके नाम खुली चिठी। (लेखक, श्रीयुत् वाडीलाल मोतीलाल शाह) प्रेमके समुद्र हे प्रभो ! मैं आज्ञानी हूं, चारों ओरसे मोहपाशमें फँसा हुआ हूं, अशरण है और अनेक प्रकारकी आधि व्याधिसे असित हूं। ऐसी भयंकर स्थिति में किसके पास जाकर मै भीख मागं: किससे ज्ञानका मार्ग समझं ? किसके पास जाकर हृदयकी उत्कण्ठा मिटाऊं और किसके द्वारा ज्ञानांजन अंजवाकर अज्ञानान्ध दूर करूं? मुझे ऐसा परम पुरुष अमीतक कोई प्राप्त नहीं हुआ। इसीसे मूलकर यहां वहां भटकता फिरता हूं-इधर उधर टकराता फिरता हूं। कहीं भी सञ्चेमार्गके न मिलनेसे मेरी यह हालत होगई है। पर हे विभो! आप तो दयालु हो, भक्त वत्सल हो, अन्धेके Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) लिए आंख हो, अज्ञानी पुरुषोंके हृदयमें ज्ञानका प्रकाश करनेवाले हो, संसारका उद्धार करनेवाले हों और कलियुगमें भी सत्ययुगके प्रवर्तक हो । इस प्रकार आपकी गुणमाला सुनकर ही मै आपकी शरण माया हूं। हे दयाके समुद्र! आपके अपार करुणासमुद्रमेंसे एक करुणाकी बंद इस तृषित पथिकके लिए भी दान करो । मुझे पूर्ण भरोसा है कि मेरी यह आशा व्यर्थ न जायगी। जबतक आपमें दया है-जनतक यथार्थमें आप करुणासागर कहे जाते हो-तबतक ऐसी आशाके रखनेका मुझे पूर्ण अधिकार है। . . .. . आप दूर हो, इसकी मुझे कुछ चिन्ता नहीं । जो लोग स्थल दृष्टि से देखते है उनके लिए तो आप सचमुच ही बहुत दूर हो । परन्तु इससे मुझे क्यों चिन्ता हो! प्रेममें-उन्नत प्रेममें-अवर्णनीय बल है । उसमें संकीर्णताको जगह नहीं। करोडों कोशकी दूरपिर रहते हुए भी हृदय दूसरी ओर आकर्षित हो जाता है, यह सच्चे प्रेममें शक्ति है । जब मुझमें आपकी भक्ति है मेरा आपपर सच्चा प्रेम हैतब मुझे आपके दूर रहनेका कोई दुःख नहीं। कमल करोडों कोशकी दूरीपर रहता है, परन्तु सूर्यको देखते ही वह विकसित हो उठता है । चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमासे बहुत दूर होनेपर भी उसके उदयके साथ ही द्रवित होने लगती है । तब हे करुणानिधान! आपके दूर रहते हुए भी यदि आपके प्रति मेरा पुज्यभाव है-भकिकी सरलता है तो इसमें सन्देह नहीं कि वह पंज्यसाव-वह भक्ति--आपको मेरी ओर खींच सके । कदाचित् आप यह समझो कि मुझमें वैसा बल, वैसी भक्ति, वैसा पुज्यमान Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आपके देखनेकी वैसी शक्ति नहीं है तो उसे आप ही पूर्ण करना | जिसकी कमी हो उसका पूर्ण करना आपके हायमें है । 'पर हे नाय ! अब आपका इधर आये बिना छुटकारा नहीं हो सकता। आइये! अघमोद्धारक! आइये!! इस हृदय मन्दिरमें पधारिये । पर हे नाय! मुझे इस बातका बड़ा दुःख है कि आपकी सेवा करनेके लिए मेरेपास कुछ नहीं है । मैं किससे आपकी सेवा कर। इसकी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ती । मैं तो केवल यही वारबार प्रार्थना करता हूं कि हे करुणासागर! आप आइये और मत जनोंकी अभिलाषा पूरी कीजिए। - -- - हे गुरुदेव ! मैं आपके पाससे धन, दौलत, आदि कुछ भी नहीं मागता { पर हां एक चीजकी मुझे अवश्य जरूरत है । उसके लिए मैं आपसे भीख मागंगा । मुझे विश्वास है कि आपसे चिन्वामणिक पास मेरी याचना भीख-व्यय न जायगी-मुझे निराश न होना पड़ेगा | आप मुझे मेरी मांगी हुई मिक्षा प्रदान करेंगे। मैं आपकी सेवा करना मागता हूं-आपके चरणकमलकी सेवाका व्रत चाहता है। यद्यपि मैं यह अच्छी तरह समझता हूं कि तलवारकी धार पर चलनेसे मी कहीं अधिक भयंकर यह व्रत है पर फिर भी इसीकी याचना करता हूँ! हे विभो ! आपको वहां अकेला रहना कैसे अच्छा लगता है। हम लोगोंको अनानान्धकारमें होड़कर आपक्म वहां रहना क्सोकर उचित हो सकता है ! आज आपके पवित्रधर्मकी स्थिति कैसी होगई है ! आप इससे अनभिज्ञ नहीं हैं। नहीं जान पड़ता फिर आप इस ओरसे क्यों निरुद्यमी हैं ! अब अवधि आमई है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि अब भी आप इसे इसी स्थितिमें बहुत दिनोंतक रक्खेंगे तो इसका क्या परिणाम होगा यह कहना जरा कठिन है। आप सब जानते हो। आपकी यह गहरी चुपकी यह बहुत दिनोंकी मौन अवश्य किसी प्रयोजनको लिए हुए है। पर अब यह छोडनी पडेगी । हे प्रभो । हे अनाथरक्षक । अब इस मौनका त्याग करके इधर आइये ! अवश्य आइये ! ! और फिरसे ज्ञानदीपकका प्रकाश कीजिए । फिरसे संसारकी सत्य और पवित्र मार्गपर श्रद्धा कराइये । आपके द्वारा प्रकाशित ज्ञानरूपी सूर्यको अज्ञान रूपी बादलोने बहुत दिनोंसे आच्छादित कर रक्खा है । अभीतक तो उस प्रकाशकी ज्योती कुछ कुछ टिमटिमा रही थी पर अब वह भी बिलकुल बुझना चाहती है । हे नाथ | जिनको आपने मालिककी भाति हमारी रक्षाके लिए भेजे थे-जिनको आपने अपने प्रतिनिधिकी जगह स्थापित किए थे-वे भव- केवल अपनी सत्ताधिकारके-लोभी हुए दीख. पडते है। मान उन्हें बहुत सुहाता है। स्वार्थने उन्हें अन्धे बना दिये है। अब हमारी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। इसलिए हे प्रभो! आपके यहां आये बिना कोई मार्ग हमारे सुधारका दिखाई नहीं पडता। अब वह समय नहीं रहा जो आप अपने शिष्योंको भेजकर फिरसे धर्मका मार्ग चलावेउसका रुद्धार- करें। अब तो आपहीको आना पडेगा। क्योंकि वस्तुकी परिस्थिति ही ऐसी होगई है जो आपके आये बिना उसका सुधार होना कठिन है। इस भयानक समयमें सामान्य शिष्योंके द्वारा यह गाढ़े अन्धकारका-पोपलीलाका-अभेद्य आवरण नहीं भेदा ना सकेगा-नहीं हटाया जा सकेगा। हेप्रभो! इतना दुराग्रह बढ़ गया है, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतनी संकीर्ण दृष्टि होगई है और अभिमानका सानाच इतना बढ़गया है कि उसके तोड़नेके लिए सामान्य हावीरी नहीं किन्तु गन्ध गनकी जबरत है। छोटे छोटे तारे इस गाहे अन्धकारने कमी नहीं सेद सकेंगे। अब तो हमें आपनी-मानसर्यको-ही आवश्यकता है। आप सदा विद्यमान रहते हो, धर्मकी रक्षा करते हो, उसके हिक्के लिए प्रयत्न करते हो, उसे नष्ट होनसे बचाते हो और उसके चारों ओर अपने धर्मरनक हायाँको हर समय रक्सा करते हो। पर यह हाल बहुत थोड़े जानते हैं । जब यह मन ही थोडेसे लोगोंने बात है तब उसपर श्रद्धा-भक्ति-रखनेवाले पदि कोई वि. रले हों तो इसमें आश्चर्य क्या ! पर ऐसे विरले दो, अर, पंच, दश इस समय, मी हाँ तो वे बहुत अच्छे हैं। यह मैं आपच्चे शुद्ध अन्तःकरणने स्विास दिलाता हूँ । हे पाक ! आपको मानती अ. यत्रा पूजनकी कुछ दरकार नहीं है, यह में अच्छी तरह जानता हूँ । वेग आपके पोचारही सवी संमनें या न समझे इसी आपने परवा नहीं, पर इस अश्रद्धासे उन विचारोंच्न बहुत अहित हेता है। वे किसी काममें जरामे विनके आजानेर माग जाते हैं-हिम्मत हार जाते हैं । जो उन्हें खबर हो, अद्धा हो-अविचल प्रद्धा हो कि आप शासनके नायक, देवाधिदेव, प्रताभित सूर्य बैठे हुए हैं तो फिर हम आपके पुत्र शुभकामनाओंको किस लिए पाठी रहने दें! जिस दिर पूर्ण मन और पूर्ण बरसे आगे नहीं बढ़ते ! पइंगा लडरुडाऊंगा तो हायके पकडनेवाले-सहारा देनेवाले-पितानी पास ही खड़े हैं ऐसी श्रद्धा हो तो पालक कैसे चलना न सीले ! पर क्या किया जाय ! आपने त्यापित किए हुए नेताओमें ही आपने अस्तित्व Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.. की श्रद्धा नष्ट हुई दिखाई पड़ती है । वे ही राजाका अनादर करके रोजगहीको पचां गये है तो फिर उनपर विश्वास रखने वालोंमें वैसी 'अदा कैसे संभव हो सकती है ? } हे नाथ! यह मेरी प्रार्थना मेरे लिए नहीं । आपकी सेवापी 'अमृतफलके सिवा मुझे किसी वस्तुकी परवा नहीं। पर चारों ओर जन दृष्टि दौड़ाता हूं तब मुझे सचमुच बड़ा भारी खेद होता है-मेरा हृदय 'द्रवित हो उठता है और इस समय क्या करना चाहिए इसकी सम न पडनेसे सब हिम्मत हार जाता हूं-अधीर हो उठता हूं। • हे रक्षक! आप यह अच्छी तरह जानते हो कि इस धर्मके तीन प्रधान भाग होगये है। परन्तु जब उनके भी अन्तर विमार्गोपर विचार किया जाता है तब आखोंमें आसं आये विना नहीं रहते । इन अन्तर विभागोंने तो इस धर्मके सत्यरूपी शरीरका चूर चेर 'कर डाला है। - अब ऐसा अमृतफल अथवा- संजीवन औषधि कहांसे लाई जाय कि जिससे फिर भी यह शरीर अपनी असली दशा प्राप्त कर सके ! क्रियाओंमेंसे चैतन्य चल बसा है। अब वे खाली खोखलासी हो गई है। सूत्र केवल तोतेकी भांति मुखसे उच्चारण किया जाता है। उसके अर्थ करनेवाले भी उसका ठीक ठीक अर्थ समझते होंमे यह नहीं जान पड़ता । अब तो टीका करनेवाले, शब्दको तोड़ मरोडकर -उसकी व्युतपत्ति करनेवाले और शब्दके खोखलोंको चूंथनेवाले ही पण्डित बहुधा दीख पडते हैं। वे विद्वान वे तत्वज्ञ तो बहुत ही विरले है जो निर्भयता और निःस्वार्थताके साथ वस्तुका वास्तविक "विवेचन करते हों। इन स्वार्थियोंकी लीलासे शब्दकी गंभीरता और Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (*) उनके जीवनको समझाने वाली कुंजी तो कमीको लोप हो गई है। हे प्रभो ! अत्र इस कुंजीका जाननेवाला कोई दिखाई नहीं पडता । इन भेदको समझाने वाला कोई नहीं मिलता और इसीसे यह बात प्रसिद्ध की गई कि इस कालमें पूर्वका ज्ञान नष्ट हो गया है, मैन पर्येय ज्ञान किसीको नहीं होता, कोई अपने पूर्व भव नहीं मान सकता । अब तो केवल शास्त्रका मनमाना अर्थ करनेवाले ही रह गये है | हो । कैसी खेदजनक स्थिति ' नाय! जब सत्र ही नष्ट हो गया तब आप ही कैसे बचे ! क्या आत्मापर - आत्माकी अनन्त शक्तियोंपर क्षुद्र देश काल असर कर सकते हैं ? क्या कालके ऊपर किसीका भी साम्राज्य नहीं चल सकता ! यदि नहीं ही खेल सकता तो हे नायें | सबके भक्षण करनेवाले कालका भी आपने कैसे काल कर दिया जबतक आप विद्यमान हैं- जब तक देश काल से अपरिछिन्न आत्मशक्तिवाले आप सरीखे महात्मा मौजूद हैं - तबतक आपका प्राप्त किया हुआ पद यह मनुष्य अपनी सेवा द्वारा प्राप्त कर सकता है, ऐसी मुझे पूर्ण श्रद्धा है । इस श्रद्धाको भले ही कोई नास्तिकताको उपाधि प्रदान करे पर मेरे हृदय मेंसे यह श्रद्धा कभी नहीं खिसकनेकी है। महाराज ! यह कैसे हो सकता है कि आत्माका स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाय ' फिर ज्ञान, अथवा पूर्व, जो ज्ञानको छोडकर भिन्न कुछ वस्तु नहीं हैं, कैसे नष्ट हो सकता है और जब आत्माकी प्रधान शक्ति ही नष्ट हो जायगी तत्र बचेगा ही क्या ? देखिये तो भावस्य णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चैव उप्पादो अर्थात् सत्का विनाश और असत्का उत्पाद कभी नहीं होता और यदि ऐसा ही होने - · - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगे तो बड़ा भारी दोष आकर उपस्थित होता है। आपके ही अखण्डसिद्धान्तमें वाधा उपस्थित होती है । इस लिए जहांतक मैं समझा हूं कह सकता हूं न तो ज्ञान नष्ट हुआ है और न पूर्व ही। उसी तरह न ज्ञानी ही नष्ट होगये है। जो मनुष्य ऐसा मानते हैं उनके लिए तो सचमुच ही सब नष्ट होगया है, यह मैं अवश्य मानता हूं। आत्माकी अनन्तशक्ति, अनन्तबलमें-अनन्तवीर्यमें निसे प्रतीति-विश्वास-श्रद्धा नहीं है उसके लिए तो सब कुछ नष्ट होगया है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। पर सबके लिए सब नष्ट होगया है यह नहीं माना जा सकता । यह केवल कल्पना है। ___ जो मनुष्य यह मानता है कि यह वस्तु कभी मिलेगी ही नहीं उसे तो वह कभी नहीं मिलेगी। क्योंकि यह कहावत प्रसिद्ध है कि रोता जाय और मरेकी खबर लेकर आवे । । हे अधमोद्धारक | इसमें यदि मेरी भल हो तो उसे मुझे समझाइये । पर इस विषयमें तो मेरा अन्तःकरण ऊपरके विचारोंसे ही सहमत होता है। और फिर भी यदि भूल हो तो फायदेकी ओर दृष्टि रखनेवालेकी भूल होती ही है । इस लिये चिन्ताकी कुछ बात नहीं। हे प्रभो ! लिखनेके लिए तो बहुत कुछ है, पर वह आपपर अविदित नहीं है । यह सब आप जानते हुए भी मौन साधे हुए है । इसीलिए मुझे लिखना पड़ा है। हे भगवन् ! मै अज्ञानी हूं-बालक हं-छमस्थ है । इस लिए मेरे लिखनेमें वडे भारी अविनयके होनेकी संभावना है। बालककी तरह वोलनेमें भी वाचाल होनेका भय बना हुआ रहता है । इस लिए . आप उस तरफ लक्ष न देकर मेरे हृदयके भावोंकी ओर दृष्टि क Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) रना । हे नाथ ! जैसी स्थिति अब है उसे बहुत समयतक रहने देना यह सारे धर्मका नाश करना है । इस लिए आप, रक्षा करनेवाले अपने हाथोंको अव चलाइये उनसे काम लीजिए। अपनी सत्यवाणीरूप अमृतका हमें पान कराइये । हमारी आखोंका पटल दूर कीनिए । अज्ञानके समुद्र में गोता खानेवाले हमारे भाइयो - अपने नालकोंपर कृपादृष्टि कीजिए। इस भरतमें इस हृदयमन्दिरमें पधारनेके लिए हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए । Co हमारे कर्त्तव्यकी समाप्ति | 1 हम जैनी है । हमे अपने जैनी होनेका बड़ा अभिमान है । हमसे कोई पूछता है कि तुम कौन हो ? तब उसे हम बड़े गर्व - के साथ उत्तर देते है कि हम जैनी हैं । पूछनेवाला जब हमसे हमारे धर्मके समझने की इच्छा प्रगट करता है तब हम उसे समझाते है कि हमारा धर्म वडा पवित्र है, ससारमें हमारे धर्मके बराबर पवित्र और आत्मकल्याणका मार्ग बतानेवाला कोई दूसरा धर्म नहीं है। उसमें कहा गया है कि कभी पापकर्म मत करो, संसारके छोटे और बड़े सब जीवोंके साथ मित्रता करो, कभी किसी नीवकी हिंसा मत करो, हिंसा तो दूर रहे, कभी उन्हें छोटी से छोटी श्री तकलीफ न पहुंचाओ, जिस तरह हो सके, जितना हो सके, दूसरोंका उपकार करो । किसीका, चाहे वह फिर तुम्हारा जानी दुश्मन भी क्यों न हो, अनिष्ट - अपकार - मत करो, न करना तो दूर रहे, पर कभी अपने भावोंमें भी किसीके बुराईकी भावना - विचार - न करो। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ ये आत्माके जानी 1 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) दुश्मन हैं-उसे कुगतिमें भ्रमण • करानेवाले हैं । इनके वश अपने आत्माको कभी न होने दो और इन्द्रियों के विषयोंमें कभी आसक्ति मत करो । आदि। इतने कहनेको सार थोडेमें यह कहा जा सकता है कि आत्माको सदा पवित्र रक्खो और पवित्र काम करो । यहाँ कल्याणका मार्ग है-आत्माके सुधारका उपाय है । आत्माके पवित्र रक्खे विना कोई काम लाभदायक नहीं हो सकता । इत्यादि । यही नैनमतका सार और असली उद्देश्य है। ये बातें पूछनेवालेको हम सुना नाते हैं और पीछे बहुत कुछ अपनी तारीफके ढेर लगा देते है। . इसमें सन्देह नहीं कि ये सब बातें सही है और इसपर चलनेबालेका बहुत कुछ ,हितसाधन हो सकता है। हम यह भी कह सकते हैं कि यद्यपि कितनी बातें इनमें ऐसी भी हैं जो सर्व साधारण मोमें पाई जाती है। परन्तु कितनी बातें ऐसी है जो जैनमतके सिवा कहीं विशेदरीतिसे नहीं मिलतीं । जैसे अहिंसा । अहिंसाका ' सलमतमें विधान है, इसमें सन्देह नहीं। पर जैनमतमें मानी हुई अहिंसाके साथ अन्यमतमें मानी हुई अहिंसाकी तुलना करनेसे जमीन आशमानका अन्तर दीख पडेगा । अस्तु । जैनमत कल्याणका मार्ग है सही । पर इससे हम भी कुछ लाभ उठाते है-उसके उद्देश्य पर चलते हैं या नहीं ? इसका विचार करना जरूरी है। हमारा यह गर्व कि जैनमत बहुत उत्तम धर्म है, हमारे लिए भी कुछ काम आता है या नहीं ? या केवल दूसरोंको समझानेके लिए ही हम इतनी बातोंका सिलसिला बांध देते हैं ! . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंमे नहांतक अपने माइयोंकी अवस्थाका परिज्ञान हुआ है, नहातक मैंने उनके कर्तव्यको समाप्तिपर. लम्य दिया है। उससे मैं यह निःसन्देह कह मरता हूं कि उनका यह अमिमानयह अपने धर्मन उत्तमता बतलाना केवल दूसरोंके लिए है। हजारोंमें शायद ही कोई एक ऐसा निकलेगा जो स्वयं भी इन बातोंपर चलनेके लिए कटिबद्ध रहता हो । हमारे भाइयोंके कर्तव्यकी समाप्ति तो बस इतनेहीमें हो जाती है कि वे डिनमें एक वक मन्दिरमें नाकर दर्शन कर आते हैं। वे दर्शन करते हैं अवश्य, पर किस लिर? पुण्य सन्यादनके लिए । उनके हृदयमें यह विश्वास है कि दर्शन करना पुण्यका कारण है। पर वे यह नहीं जानते कि हमारे ऋषियाने किस लिए प्रतिमाका दर्शन करना बतलाया है ? इस बातका उन्हें स्वप्नमें भी सयाल नहीं होता कि हम जिनके दर्शन करते हैं वे अपने अपूर्व गुणों से संसारके आदर्श हुए हैं। उन्होंने उसके हितकेलिए सतत प्रयत्नकर उसे कल्याणका पय प्रदर्शन कराया है, जीवमात्रक्त उपकार करनेके लिए कठिनसे कठिन दुःख उठाया है और अन्तमें काँका नाग कर अपने आत्माने अनर अमर बना लिया है। उनके ये गुण हमें भी प्राप्त करनेकी कोशिश करनी चाहिए । अपने आत्माक्ने उन आदौके पयपर लगाकर उसे पवित्र बनाना चाहिए । संसारके दुःखी जीवोंका-अपने माइयोंक्य-हमें उपकार करना चाहिए । आदि । हमारा इस बातपर बिस्कुल लक्ष्य नहीं । हम तो दर्शन करनेका केवल इतना ही मतलब समझे हुए हैं कि उससे पुण्यबन्ध होकर हमें स्वर्गकी प्राप्ति होगीहमें इसकी जन्तरत नहीं कि हम दूसरोंके उपकारके लिए उपाय करें। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा कर्तव्य समझिए, परोपकार करना.समझिये, अपने धर्मपर "चलना समझिये या पुण्यकर्म समझिये, जो कुछ समझिये वह केवल इतना ही कि प्रात:काल एक वक्त भगवान्के दर्शन कर आना है । दर्शन भी कैसा ! चाहे उस वक्त हमारे भावोंमें पवित्रता न हो, चाहे हमारा उपयोग उस वक्त कहीं अन्यत्र लगा हो, चाहे दृष्टि पापवासनाकी तरफ झुकी हो, चाहे हम भारीसे भारी आकुलित अवस्थामें हो, चाहे हम मन्दिरकी रमणीय वस्तुओंके अवलोकनमें अपने उपयोगको लगा देते हों और ऐसे समयमें चाहे फिर हमे पुण्य -बन्ध भी नहो। परन्तु इन बातोंकी हमें कुछ परवा नहीं। हम तो दर्शन कर ओनेको ही सब कुछ समझते हैं। हमें इस विचारकी जरूरत नहीं कि दर्शन करनेके अतिरिक्त भी कुछ हमारा कर्तव्य है । इसमें सन्देह नहीं कि भगवानका दर्शन करना उत्तम न हो। उत्तम है और अवश्य कर्त्तव्य है। पर विचारके साथ । महर्षियोंने दर्शन करनेका केवल इतना ही आशय रक्खा है कि भगवानको देखकर हम उनके अपूर्व परोपकारता आदि गुणोंका स्मरण करें और फिर उनके अनु-सार अपनेको भी उन गुणोंका पात्र बनावें । दर्शन करनेका अभिप्राय जो केवल इतना ही समझे हुए है कि उससे पुण्यवन्ध होता है और इसी लिए वे दर्शन करते हैं तो वे भल करते हैं। किसी तरहकी आशासे धर्मकाम करना इस विषयमें हमारे ऋषियोंकी सहानुभति -नहीं है। वे उसे अच्छा नहीं समझते। हमें परमात्माके दर्शनसे उनके गुण प्राप्त करने चाहिएं। हमें यह लिखते हुए अत्यन्त दुःख होता है के हम अपने मनुष्य जन्म और जैनधर्मके प्राप्त करनेकी समाप्ति केवल परमात्माके दर्शनसे-देखनेसे-समझ बैठे हैं। हमें अपने Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( १३ ) ऋषियोंके कर्त्तव्योंपर कुछ भी विचार नहीं आता कि उन्होंने अपने जीवनको कैसे कामोंमें लगाया था । हमारी आंखोंके सामने ऐसे अनेक आदर्श उदाहरण विद्यमान है जिनसे कि हमारे पूर्व पुरुषोंकी उदारता और परोपकारताका पूर्ण पता लगता है। उन्होंने अपनी जातिके लिएअपने भाइयोंके लिए अपने जीवनतककी कुछ परवा नहीं की थी। पर आज तो हमारे देश और जातिके भाइयोंकी बहुत पतितावस्था है तत्र भी हमें कुछ नहीं सूझता । उनके दुःखपर बिल्कुल दया नहीं आती। हम जानते है कि नैनधर्मका उद्देश्य जीवमात्रपर दया करनेका--उनके दुःखमें सहायता देनेका - है, पर वह केवल हमारे लिए कथन मात्र है । उसपर चलना यह हमारे लिए कुछ आवश्यक नहीं । हम दूसरोंको समझावेंगे तब नैनधर्मकी बेशक खूब नी जानसे तारीफ करेंगे पर उसपर हम भी चलते है या नहीं इसका कभी बिचार भी नहीं करेंगे । हम दूसरोंको कहते हैं कि हमारा धर्म बडा ही दयामय है, पर हममें कितनी दया है उसका कुछ जिकर नहीं । हमारा धर्म संसारमात्रका कल्याण करनेवाला है, पर उसे पाकर हमने भी कुछ अपना कल्याण किया है या नहीं ? हमारे धर्ममें बडे बडे आदर्श और परोपकारी पुरुष होगये है, पर हममें भी कुछ उपकारखुद्धि है या नहीं ! हमारे धर्ममें पापकर्मके न करनेपर खूब जोर दिया गया है, पर हम दिनरात जो हिंसा, झुंठ, चौरी, मायाचार, दगाबाजी करते हैं, जहातक वनपडता है दूसरोंको तकलीक पहुचा कर अन्याय - अनर्थ - करते हैं, अपने ही भाइयोंके साथ नहीं करनेका काम करते है, वुरेसे बुरे और नीचसे नीच काम करनेसे भी हम बाज नहीं आते हैं, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) लोगोंको धोखा देकर ठगते हैं, विश्वास देकर उसका कर डालते है, सीधे साधे और भोले भाले मनुष्यको अपने जाल में फंसाकर उसपर आपत्तिका पहाड ढहा देते हैं, बाहरी दोंगसे धर्मात्मा वनकर लोगोंको अपने पलेमें फंसानेकी कोशिश करते है, एक एक पैसेके लिए हजारों झूठी प्रतिज्ञा कर डालते है, गरीबोंको तकलीफ देनेमें कुछ कसर नहीं रखते है, दिनमें हजारों बार झूठ बोलते है, चोरी करते हैं, ऊपरसे अहिंसा -- के माननेका ढोंग बनाकर भीतर ही भीतर मायाचार - छल-कपटके द्वारा लोगों पर बुरी तरह वारकरके उनको दीन दुनियासे खो देते है, अपनी माता और बहनोंपर बुरी निगाह डालनेमें हमें लज्जा नहीं आती है, हम भगवानके दर्शन करनेका बहाना बनाकर वहा माता बहनोंके पवित्र दर्शन करते हैं, करते हैं भगवानकी पूजन, पर हमारा ध्यान रूपकी हाटके देखने में लगा रहता है, हम मन्दिरोंको धर्मायतन कहते हैं पर वहां पाप करनेमें कुछ लज्जित नहीं होते, हम लोगों पर यह जाहिर करते हैं कि हम बड़े धर्मात्मा हैं पर उसकी आड़में हम चरम दर्जेका अन्याय करनेसे नहीं हिचकते, हम अभिमान करते है, पर अभिमान कैसा ! जिससे जाति और देश घूलमें मिल जाय, हम निर्बलों पर अत्याचार करते हैं पर उसे बुरा नहीं समझते, आदि, महापापसे बचनेका कुछ प्रयत्न करते हैं या नहीं ? हमारा धर्म सब जीवोंके साथ मित्रताका उपदेश देता 1 हैं, पर हम भी किसीके साथ मित्रता करते हैं या नहीं ! राग, द्वेष क्रोध, मान, माया, लोभ, ये आत्माके पूर्ण शत्रु कहे गये हैं पर इनसे हम भी अपनी रक्षा करते हैं या नहीं ? अपने आत्माको सदा पवित्र Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) रक्खो और पवित्र काम करो, पर हम अपनेको कुछ पवित्र करनेकी अथवा पवित्र काम के करनेकी कोशिश करते हैं या नहीं ! इन बातों पर क्या कभी हमारा ध्यान जाता है ' कभी विवेकबुद्धिका विकाश होता है ? मै कहूंगा, कभी नहीं । क्योंकि हमने तो अपने कर्त्तव्यकी समाप्ति केवल सुबह दोचार मिनटके लिए मन्दिरमें जाकर परमात्माकी मूर्त्तिका निरीक्षण करने मात्रसे समझ रक्खी है न फिर क्यों हमें इन बातोंपर विचार हो ? क्यों हम अपनेको अधिक कष्टके गड्ढे में डालें' देश या जाति कल रसातलमें पहुचते हो तो हमारी ओरसे आज़ ही पहुंच जायँ । हमे क्या ज़रूरत जो हम दूसरोंकी बला अपने शिरपर उठायें ? हाय ! समयकी बलिहारी है ! नहीं तो क्यों आज हम लोगोंमें इतनी संकीर्ण बुद्धि और अन्यायपरता होती ! हमारे पूर्वजोंने ससारके हित के लिए कोई काम करता बाकी नहीं रक्खा था । पर हमें सत्र कण्टकसे दिखाई पड़ते हैं । पाठक ! आप विचारके साथ अपनी दृष्टिको दूर तक फैला कर देखेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि हमारे भाइयोंकी कैसी भयानक परिस्थिति है। उनका कर्त्तव्य तो कितना था और वे क्या समझे हुए बैठे हैं। क्या उनकी इस भूलका कुछ ठिकाना है ! क्या कभी वह पवित्र दिन आवेगा जब कि हमारे भाई अपनी इस भूलको जानकर सारे संसार के हितका उपाय करेंगे ! परमात्मा ! दयासिन्धु ! | उन्हें सुबुद्धि प्रदान कीजिए। जिससे कि वे अपने कर्त्तव्यको समतें और उसीके अनुसार चलनेके लिए कार्यक्षेत्रमें निर्भय होकर कूद पढें । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोले भाइयो ! अब अपनी इस भोलपनको छोडो। इस भोलएनसे-इस हृदयकी अनुदारतासे-हम बहुत पतित हो चुके है । हमें अपने कर्तव्यका ज्ञान नहीं रहा है। आप जो अपने हृदयमें यह निश्चय किये हुए बैठे हो कि परमात्माके दर्शन करनेसे ही हमारे कर्त्तव्य की समाप्ति हो जाती है यह आपकी नितान्त भूल है । मैं कहूंगा कि संसारके बुराई मलाईकी जितनी जबाबदारी आपपर है उतनी किसी पर नहीं है । क्योंकि यह आपहीके धर्मका पवित्र सिद्धान्त है कि 'सत्वेषु मैत्री' अर्थात् जीवमात्रपर प्रेम करो। और आपके तीर्थंकरोंने भी सारे संसारके लिए कल्याणका मार्ग बताया है। फिर आप ही कहें कि जो सारे संसारको अपना समझकर उसे कल्याणके मार्गपर लाना चाहता है तब उसे उसके हित वा अहितका जबाबदार होना पडेगा या नहीं ! अपनी गहरी भूलको छोडो और संसारमात्रके हितमें लगो, यही हमारी आपसे प्रार्थना है। आपके लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है । इसलिए केवल परमात्माके दर्शनसेही अपने कर्त्तव्य समाप्ति मत समझो । - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) कञ्चन । (सामानिक आख्यायिका) (४) कामवासना। रातके एक बजेका समय है । प्रकृति बिल्कुल निस्तब्ध हैं। सारा गहर निद्रा देवीकी गोदमें मुखकी नाद सोया हुआ है। पूनमचन्द जिम मकानमें रहते हैं उसमे कुछ ही दूरपर एक वेश्याका घर है। इस समय इस निस्तब्धतामें भी कमला मधुर और मनोहर गाना गा रही है। गाना बहुत उत्तम है । उसके सुननेवालेका चित्त बहुत जल्दी उमकी और आकर्षित हो जाता है । यदि हम इस गानेका गर्वगानके साथ मिलान करें तो संभव नहीं कि वह उससे किमी अंगमें कम हो। __ गाना अपनी प्रतिध्वनिसे आस पामके गृहामें गूंजता हुआ वामें लीन हो जाता था । पूनमचन्द माने थे । एका एक गानेकी मनोहारिणी आवाजने उनकी नीदमें बाधा डाल दी । वे जग उ। उनका ध्यान गानेकी ओर खिंत्रा। उमकी सुन्दरताने उन्हें अधीर बना दिया । निद्रा लेना अब उन्हें कठिन होगया । उनकी स्त्रीको मरे आन तीन वर्ष हुए हैं, पर इस समय उनका गोक विस्कुल ताजामा दीख पड़ता है । जान पडता है गाना सुनकर उन्हें उनकी ब्रीकी याद हो उठी है और इसीसे वे एक साय इतने अवीर होगये है। आज उन्हें ललनाप्रेमने फिर घर दवाया है। जैसे जैसे समय अधिक अधिक वीतता है वैसे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) वैसे उनकी उत्कण्ठा प्रबल हो रही है। उसके पूरी करनेका उनके पास कुछ साधन नही दखि पड़ता। इससे उनके मनोविकार और भी भयंकरता धारण कर रहे हैं । वृद्धावस्थामें यद्यपि इद्रियां शिथिल हो जाती है, उनमें किसीतरह की स्फूर्ति नहीं रहती । पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि वृद्धावस्या के मनोविकार पहलेसे भी कहीं अधिक उत्तेजित हो जाते है। युवा पुरुष यदि हिम्मत करे तो उन्हें दवा सकता है, पर वृद्ध पुरुपकी यह ताकत नहीं कि वह अपने हृदयके उदीप्त विकारोंका दमन कर सके । पूनमचन्द्र भी वृद्ध हैं, पर आजके गानेने, जो कि उनकी स्त्रीके मधुर स्वरसे मिलता हुआ था, उन्हें विकल कर दिया । इस ढलती उमरमे आज फिर उन्हें अपने आज फिर उन्हें अपने विवाहका ध्यान आया । उनके हृदयमें बुरे भले विचारोंका बड़ा भारी घमासान युद्ध मचा। वे कभी तो जाति वा लोक लज्जाके भयसे विवाहके विचारको रद्द कर डालते थे और जैसे ही उन्हें उस सुन्दर गानेकी आवाजका ध्यान आता तत्र फिर विवाह के लिए तैयार हो उठते थे । बहुत तर्क वितर्कके बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि जो कुछ हो विवाह करना और अवश्य करना । फिर चाहे लोग बुरा ही कहें ? कहांतक वे बुरा कहेंगे ? एक दिन, दो दिन, का दिन, महीना, दो महीना, वर्ष दो वर्ष । आखिर तो उसकी भी सीमा हैं । और फिर उससे मेरा विगडेगा ही क्या ? एकके कामको एक बुरा कहता है और एक भला । पर इस भय से क्या अपना विचार छोड देना चाहिये ? नहीं । हा संभव है जातिके लोग Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) कुछ गडबड करें । पर वे भी एक वक्तके भोजनसे ठण्डे किये जा सकते हैं। फिर क्यों मै अपना विचार बदलूं। विवाहमें रुपया वहुत कुछ खर्च करना पडेगा । अस्तु । इसकी कुछ परवा नहीं । हजार, दो हजार, चार हजार, दश हजार भी क्यों न खर्च हो जायँ, करूगा । पर विवाह करना कभी नहीं छोड़गा। रूपया तो मैंने अपने आरामके लिए ही कमाया है । फिर जब उनसे मैं ही लाभ नहीं उठाऊगा तब क्या मैंने यह मजूरी दुसरे. के ही लिए की है। वे वडे मूर्व हैं जो पास पैसा होते हुए भी आनन्दोपभोगसे वञ्चित रहते है । मुझे यह मन्जूर नहीं । मैं अपने पैसाका उपभोग करूंगा। लोग कहते है कि वृद्धावस्थामें विवाह करना बुरा है, पर यह उनकी भूल है । वे अपने स्वार्थकी और देखते तो कभी ऐसा नहीं कहते । अपना भला सब चाहते है फिर मैं ही क्यों दुख देहूं । पनमचन्दन अपनी बुरी वासनाके वश हो बुराई भलाईकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। जातिकी और लोक लजाकी, कुछ परवा न रक्खी । मचमुत्र जब मनुष्य कामके पाशमें बद्ध हो जाता है तब उसे अपनी, अपनी जातिकी, और अपने देशकी हानि लाभका कुछ विचार नहीं होता है । हो कहां से, जब कुछ विवेक बुद्धि हो तब ही न ! सो उनकी विवेकबुद्धिको तो काम पहले ही हर लेता है। - पूनमचन्टका अभी एक बलासे तो पिण्ड छूटा ही नहीं है कि एक और वला स्वयं उन्होंने अपने ऊपर उठाली है। अभी उन्हें अपने सुपुत्र मोतीलालका विवाह करना तो वाकी ही है। उसके लिए Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही उन्हें कितनी दौड धूप करनी पड़ी है। फिर न नाने अपने लिए वे क्या करेंगे ? मनुष्य अपने स्वार्थके पीछे सब कुछ भूल जाता है।.. इसमें कुछ सन्देह नहीं । ठीक यही हाल पूनमचन्दका हुआ है । आइये पाठक ! हम और आप भी पूनमचन्दके विवाहकातमाशा देखें। विपत्ति। मोतीलालका विवाह हुए आज दो वर्ष बीत गये, पर उसने आज. तक अपनी स्त्रीके साथ कभी प्रेम संभाषण नहीं क्यिा । हम उसके चालचलनका हाल पहले लिख चुके है । पाठक जान सकेंगे कि निसका हृदय किसी दूसरेके वश है, वा वह स्वयं अपनेको दूसरेके लिए सौंप चुका है, फिर उसे अपने घरकी कुछ खवर नहीं रहती। उसे अपनी सुन्दर और सुखद वस्तु भी बुरी जान पड़ती है। आपने. यदि यशोधर महाराजकी जीवनी पडी है तो आपको अमृतमनीकी कथा इसके लिए उत्तम आदर्श जान पडेगी । मोतीलाल अपने हृदयको दूसरेके लिए सौप चुका है। अब वह कञ्चनपर कैसे प्रेम कर सकता है ? वेचारी कञ्चन चाहती है कि मैं एक वक्त अपने प्राजप्यारेसे इस बातका कारण समझू कि वे मुझसे क्यों नाराज है ? पर मोतीलाल उसे इतना अवसर भी नहीं देता । उसके लंगोटिये यार और उसे दिनरात बुरी बातें सुझाया करते है, जिससे वह और भी निर्दयता धारण किये जाता है। बेचारी कञ्चन जैसे जैसे वढी होती जाती है वैसे वैसे चिन्ता और मानसीक विकारोंकी ज्वालासे उसका हृदय लला जाता है। वह Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) चाहे दरिद्र और स्वार्थीके घरमें भले ही उत्पन्न हुई हो, पर उसमें कुलीनता है । वह अपने कुलकी मर्यादा रखना जानती है । इसलिए वह दुःख भोगती है पर उसकी परवा नहीं करती । सचमुच उसमें शिक्षाको सुगन्धने उसके कञ्चन नामको सार्थक कर सोने और सुगन्धकी कहावतको चरितार्थ करदी है। ___ जब उसे अपने पिताकी स्वार्थताका ध्यान आता है तब उसका हृदय-कोमल हृदय-फटने लगता है। कभी कभी तो उसकी हालत यहातक विगड जाती है कि उसे खाना पीनातक जहर हो नाता है। उसे रोनेके सिवा कुछ सुझता ही नहीं । कभी वह अपने बुरे कर्मको धिक्कारती है, कभी परमेश्वरसे प्रार्थना करती है, पर उसे किसी तरह शान्ति नहीं मिलती-उसका दुःख कम न होकर बढ़ने ही लगता है। ___ हम केवल कञ्चनहीकी हालत क्यों कहें ! आज तो हमारी जातिभरकी यही हालत हो रही है। वह न गुणोंका विचार करती है, न बुद्धिपर ध्यान देती है, न चालचलन पर खयाल करती है और न अवस्थाकी मीमासा करती है । तब करती है क्या ? केवल पैसा देखकर फिर वह चाहे मूर्ख हो, कुरूप हो, वृद्ध हो, वालक हो अयवा वीमार हो उसके साथ अपनी प्यारी पुत्रिया विवाह देती है। यों कहो कि उन्हें नरकयातना भोगनेके लिए ऐसोंके गले लटका देती है। इन दुराचरणोंसे हमारी जातिका दिनों दिन भयंकर हास हो रहा है और अभी होगा । क्योंकि अभी इन दुराचारोंके रोकनेका कुछ भी उपाय नहीं किया जाता है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) कञ्चन-कोमलहृदया कञ्चन-दुखी है बहुत दुखी है। उसे * पना जीवनतक भी भारसा प्रतीति होता है। उसे आशा नहीं कि अब कभी मुझे प्रियतमके साथ सुखसंभाषणका अवसर मिलेगा। वह मारे लज्जाके अपनी मनोवेदनाओंको दूसरोंपर भी जाहिर नहीं कर सकती। उसे इस वातका अधिकार भी तो नहीं है । कञ्चन ! तू अभागिनी है । तेरा पापकर्म बहुत तीव्र है । इसी लिए तेरे भाग्यमें सुख नहीं । तुझे आजतक अपने प्रियतमके साथ संभाषण करनेका, सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। अपने कियेका फल भोगना यही अब एक मात्र तेरे लिए शान्तिका उपाय हैं । • . , एक दिन कञ्चन बैठी हुई थी कि मोतीलाल किसी कामके लिए उसकी कोठडीमें आया । कन्चनने उठकर साहस पूर्वक उसका हाथ पकड लिया और वह कहने लगी कि प्राणनाथ ! मुझ अभागिनी पर आप किस लिए नाराज है ? मैने आपका ऐसा कौनसा भारी अपराध किया है जिससे मै आपकी कृपापानी आजतक नहीं हुई है. मुझे समझाइये । मुझे दुःख देखते देखते वर्षके वर्ष बीत गयेपर आपने मेरे दुःखकी कुछ भी बात नहीं पूछी बतलाइये तो पतिको छोड़कर स्त्रीका और कौन आधार हो सकता है। वह किसके पास जाकर अपनी दुःख कहानी सुना सकती है? मोतीलाल-हाय छोड़ो । मुझे कामकी जरदी है। कञ्चन-आप तो जरासी देरके लिए ही इतनी उतावल करने लग गये ? फिर मेरी हालत तो देखिये कि मै दिनरात चिन्ताकी ज्वालामें नली जाती हूं, उसकी भी आपको कुछ खबर है ? मेरी वातोंका जबाब तो दीजिए कि आप मुझे क्यो नहीं चाहते ? - विना कुछ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) अपराधके एक दीन अबलापर ऐसा घोर अत्याचार करना क्या भापको उचित जान पड़ता है। . . मोतीलाल-मुझे अभी इन सब बातोंके उत्तर देनेकी फुरसत नहीं है। इस समय मेरा हाथ छोड दो। __ कञ्चन--प्यारे! आप मुझे कुछ भी कहे पर जवतक आप मेरी वातोंका उत्तर न देंगे तबतक मै आपको न जाने दगी । मैने बहुत दुःख उठा लिये । अब मै नहीं सह सकती । आप देखते नहीं कि मेरी शारीरिक दशा कैसी विगड गई है। पर फिर भी उसपर आपको दया नहीं आती। __मोतीलाल-तो क्या यह जबरदस्ती है जो मेरा हाथ छोडना । नहीं चाहतीं छोड़ो । मुझे बहुत देरी होगई है । हा तुम्हारी वातोक्न उत्तर फिर कभी दूगा। __ कञ्चन-नाथ । आप यह क्या कहते है । मैं तो आपसे केवल प्रेमकी मिक्षा मांगती हूं। मुझे जबरदस्ती करके क्या करना है ? मै आपका हाथ छोडनेके लिए तैयार हूं! पर यह कह दीजिए कि मुझपर कृपा क्यों नहीं करते? मुझसे क्या ऐसी भारी भूल बनपड़ी है? वतलाइये मै 'उसकी माफी मागू मोतीलाल-जान पडता है कि तुम बिना उत्तर पाये मेरा हाथ न छोडोगी । आखिर होतो स्त्री ही न अस्तु । सुनो-मै तुम्हारी संव वातोंका उत्तर देकर मामला तय किए देता हू । तुम मुझे चाहती हो-मुझपर प्रेम करती हो-यह सही है । पर मै तुम्हें नहीं चाहता। तुम पूछोगी, क्यों ? इसका मेरे पास कुछ जबाव नहीं है । तुम, कहोगी फिर विवाह किस लिए किया था। इसका उत्तर पिताजीदे सकते Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) है। बस यही मेरा उत्तर है। अब इसपर जो तुम्हें उचित जान पड़े वह करो । पर मै तुमसे प्रेम नहीं करता। ___ सुनते ही वेचारी कञ्चनके शिरपर वज्रसा गिर पड़ा । उसका सारा शरीर सन्न होगया । वह मोतीलालका हाथ छोड़कर अलग होगई । उसका शिर घूमने लगा। दुःख और चिन्ताके आवेगसे वह अपनेको न सम्हाल सकी। वह एक दम घडामसे पृथ्वीपर गिर पड़ी। मोतीलालका पत्थर हृदय तब भी नहीं पसीजा । वह अवसर पाकर वहांसे चलता बना । मूर्खता ! तुझे सो वार नमस्कार है । - - विपत्तिपर विपत्ति । मैं बहुत दुःख उठा चुकी । अब मुझसे यह दारुण दशा नहीं मोगी जाती । परमात्मा ! मै अभागिनी हूं। अनाथिनी हूं। कर्मोको मारी हुई हूँ। मेरी रक्षा करो-मुझे वचाओ। विपत्तिके अथाह समुद्रमें वही ना रही हूँ, मुझे सहारा दो । आपने पापीसे पापी और अधमसे अधमका उद्धार किया है फिर मेरा-दुःखिनीकादुःख क्या दूर नहीं करोगे ? आपका स्मरण करके भी जब वहुतस सुखी होगये है तव मुझे, जो दिन रात आपका ध्यान किया करती हूं, सुखी न करोगे ! मेरे प्यारेने मुझे छोड़दी है। पर क्यों ? यह मैं नहीं जानती । आप मुझे बतलाइये कि मेरा क्या अपराध है ! क्योंकि आप सर्वज्ञ है। सबके जानने वाले है । फिर मैं उसका प्रायश्चित्त कर शुद्ध हो लूं । हाय ! सचमुच मै पापिनी हूं। मैने बहुत पाप किये हैं। इसीसे मुझे यह दुःख-भयंकर दुःखभोगना पड़ा है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) प्राणनाय ! यदिमें आपकी दृष्टिम अपराधिनी ही हूं तो भी इतनी बुरी तो नहीं हूं कि आप मुझसे बोलनेमें भी घृणा करें ? मुझसे एक वक तो प्रसन्न चित्त होकर आप संमाषण कीजिए । मैं इरतेहीमें अपनेको सौभाग्यवती समझ लूगी। केवल बोलने मात्र तोमै आपला कुछ छीन नहीं लूंगी। मेरा जीवन-यह पापमय जीवन सफल हो जायगा । जीवनसर्वस्व ! मैं हिन्दू कुलमें--पवित्र कुलमेंउत्पन्न हुई हूं। आप जानते है कि हिन्दु रमणीरत्नोंका एक मात्र आराध्य देव उनका पति होता है । उसे छोडकर न तो कोई उसका आराध्य है और न जीवनमें सहारा देनेवाला है । आप मेरे प्राण है। इस भयंकर अवस्था मी जो मैं इन पापी प्राणोंको धारण किये हुई हूं वह केवल आपके सहारेपर । भला । आप ही विचारें कि जब मुझे आप ही अपने चरणोंकी छायाका आश्रय न देगें तब और कौन मेरी रक्षा करेगा ? नाथ ! मैं आपकी एक दासी हूं। मुझपर दया करो । मुझे इस विपत्तिसे उबारो। मैं आपकी अपराधिनी हू तो मुझे क्षमा करो और मुझे रहनेको अपने हृदयमें जगह दो । प्यारे । क्या सचमुच आप मेरी प्रार्थना न सुनेगे ? मुझे सहारा देकर मेरी रक्षा न करेंगे? मैं हाथ जोडती हु । पावों में पड़ती है। मुझे बचाओ । में केवल आपकी कृपाकी भूखी हूं। मुझे धन दौलतकी कुछ जरूरत नहीं । प्यारे ! एक वक्त प्रसन्न होकर अपने श्रीमुखसेसुन्दर मुखसे-वाल लीजिए । मधुर हँसी हॅस लीनिए । बस यही चाहती हूँ। जीवनेश्वर ! आप मुझे नहीं चाहते न सही पर प्रेमकी दृष्टिसे एक वक्त मेरी ओर निहार तो लिजिए। इतनेमें तो आपका कुछ नहीं निगढ जायगा। क्या विपत्तिकी मारी एक अभागिनीपर करो। र मुझे रहनेको अमगे मुझे सहा मुझे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) इतनी मी दया करना आप बुरा समझते है। आपके हृदयमें इतनी मी उदारता नहीं है ? अस्तु । आप स्वतंत्र हैं। अपने हृदयके, अधिकारी है। मेरा आपपर कुछ जोर नहीं । हिन्दू रमणियोंके लिए यही आज्ञा है कि वे पतिके कहनेको कभी नहीं टालें । मैं भी इसे पालुंगी । यदि इसमें मुझे और भी अधिक दुःख सहना पडे तो सहूंगी-जीवन देना पडे तो दूंगी। पर आज्ञाका-ऋषियोंकी अमोलिक आज्ञाका--अवश्य पालन करूंगी। मै अबला हूँ फिर स्वतंत्र होकर प्रवला कैसे हो सकती हूं : आहा ! इस धर्मको धन्य है जिसे पालन कर अपना सर्वस्व खो बैठनेपर भी महिलागण उसके पालन करनेमें हिम्मत नहीं हारतीं। मेरा जन्म भी तो उसी कुलमें हुआ है । फिर क्या मै अपने इस तुच्छ और नश्वर जीवनमें उसे कलङ्कित करूंगी ? नही । आहा ! यह पवित्र कुल कितना समर्याद है ! कितनी इसकी धर्मपर श्रद्धा--विश्वास है ? जो मुझ अवलाका साहस भी आन अलौकिक साहसके रूपमें परिणत हो गया है। प्रेमके रत्नाकर ! अच्छा, मेरी प्रार्थना न सुनो। क्योंकि मैं पापिनी हू । मै स्वयं नहीं चाहती कि मेरे द्वारा आपको पापका स्पर्श करना पडे । अच्छा, सुखी रहिए । मै आपके सुखी रहनेकी ईश्वरसे प्रार्थना करूगी और हिन्दू स्त्रीके व्रतका पालन करूगी। हॉ ! एक और प्रार्थना है वह यह कि आप मेरे अपराध क्षमा करना और सदा मु .. ... .....कहते कहते बेचारी कञ्चनका गला भर आया । वह आगे एक अक्षर भी मुँहसे न निकाल सकी। - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) ( ७ ) भाग्य फूट गया । पूनमचन्दने भी अपना विवाह कर लिया । उनकी स्त्रीका नाम तारा है । ताराकी अवस्था अभी कुल आठ वर्षके लगभग है । उसे किसी तरहका ज्ञान नहीं है । वह निरी बालिका है। I 1 ज्येष्ठका महिना है । गर्मीकी प्रखरतासे पृथ्वी अग्निकी भाति भधक रही है । पशु पक्षियोंकी भी हिम्मत नहीं कि वे अपने आवास स्थानसे बाहिर निकल सकें । इस समय पूनमचन्द जल्दी जल्दी पावकीं डग बढाते हुए घरकी ओर बढ़े हुए चले आते हैं । उनकी तबियत गर्मी के आतापसे बिगडी हुई दिखाई पडती है । वे आये और घरमें घुसे कि उन्हें उल्टी और उसीके साथ दस्त होना आरभ होगया । घरके नोकर चाकर दौड धूप करने लगे । वैद्य बुलाये गये । दवा दीगई पर परिणाम कुछ भी नहीं निकला आखिर उनकी जीवनलीला समाप्त होगई । बेचारी ताराके भाग्यका तारा अस्त होगया । वह जन्मभरके लिए अनाथिनी होगई । हाय ! उसके साथ कैसा अनर्थ किया गया कैसा राक्षसी कृत्य किया गया ? जिसका उसे यह भयंकर फल भोगना पडा । अभीतक तो वह यह भी न जान पाई थी कि विवाह किसे कहते है उसे यह भी नहीं मालूम था कि पूनमचन्द मेरे कौन होते हैं पर हा इतना जरूर जानती थी कि वे बूढे है, मेरे घरपर दो चार वार आये है, वहीं जीमें है और वहीं रहे भी है । इस - लिए माता के कोई रिश्तेदार होंगे, तभी माताने मुझे इनके साथ 2 2 2 2 जदी है । वह कभी कभी तो पूनमचन्दको ऐसे ही सम्बोधनसे पुकार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) भी लेती जिससे दूसरोंको यह जान पडता था कि यह पूनमचन्दकी चहन वगैरेहमें किसीकी लडकी होगी। उस वक्त पूनमचन्द उसे शिक्षा देते कि प्रिये ! तुम मुझे इस तरह मत पुकारा करो। मैं तो तुम्हारा स्वामी हूं-पति हूं-और तुम मेरी पत्नी-स्त्री हो । पर वेचारी तारा इस रहस्य को क्या जाने कि पति पत्नी किसे कहते हैं और उनका पारास्परिक क्या सम्बन्ध है ? ___ हाय ! भारत ! तेरी कैसी दशा विगडी है ? संभव नहीं कि ऐसी स्थितिका दूसरे देशोंको भी कभी सामना करना पड़ा होगा ? स्वार्थियोंने तुझे कितने गहरे गड्ढेमें डाल दिया है वह लिखना अर. कठिन है । जो तेरी सन्तान ब्रह्मचारिणी, वलिष्ठ और पूर्ण जिते न्द्रिय हुआ करती थी आज वही व्यभिचारिणी, निर्बल और इन्द्रियोंकी दास होगई है । जो विवाह केवल वर और कन्याके सुखके लिये हुआ करता था आज उसका विल्कुल उल्टा परिणाम दीख पडता है । जव साठ ‘साठ वर्षके बुड्ढेके साथ आठ आठ नौ नौ वर्षकी बालिकायें विवाह दी जाती है तब वह कैसे सुखका मूल हो सकता है ? अथवा जहां सोलह वर्षकी कन्या और चौवीस वर्पके लडकेका विवाह हुआ करता था वहां वे अब बचपन और अबोध अवस्थाहीमें विवाह दिये जाते है। और फिर उनसे अपने वंशकी मर्यादाके सनीवित रखनेकी आशाकी जाती है पर यह संभव नहीं कि उनके द्वारा हमारा देश बलिष्ठ और कर्तव्य परायण हो सके ? अपक्व अवस्थामें विवाह हुए स्त्री पुरुषोंकी सन्तान बलवान नहीं होती और न उनके द्वारा कुलपरम्परा ही चल सकती है? न जाने ये कुरीतियां Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९) कब भारतका पिंड छोडेंगी? कब यहांसे अपना मुँह काला करेंगी : कब यह पतित मारत पीछा उन्नत होगा ! कब इसकी सन्तानके हृदययें ज्ञानका प्रकाश फैलेगा ? कब वे अपनी जन्मभूमिके. उद्धारका उपाय करेंगे ? भारतकी सन्तान ! उठो और अपने पवित्र देशका उद्धार करो। " देखो तो इन कुरीतियोंने तुम्हारी जन्मभूमिकी कैसी बुरी दशा कर डाली है ? वेचारी तारा इसका उदाहरण है। क्या तुम्हें ऐसे घृणित व्य-- वहार और निर्दय अत्याचारोंको देखकर भी दया नहीं आती ? तुम्हारा हृदय देशकी दुर्शशासे नहीं पसीजता । यदिः सचमुच. तुम्हारा हृदय इतना कठोर है-इतना निर्दयी है तो मैं : विश्वास करता हूँ कि तुम्हारे समान कृतघ्नी-परोपकारको भूलनेवाला भी कोई नहीं हो सकता है। ताराके स्वामी पूनमचन्दकी जीवनलीला पूर्ण होगई तब भी वह नहीं जानती कि मुझे किसी आपत्तिका सामाना करना पड़ा है। मुझपर वज्र आकर गिरा है । घरमें रोना मचा हुआ था पर उसके हृद्यमें शोकका नाम निशान नहीं । आखोंमें आंसूकी वृंद नहीं । वह सदाकी भांति अब भी वैसी प्रसन्न है । पाठक ! सच तो है जब वह बेचारी इतनातक नहीं जानती कि विवाह किस चिडियाका नाम है? स्वामी और स्त्रीका क्या धर्म है और उनका क्या सम्बन्ध है ? तब वह क्या समझकर अपने पतिका शोक मनावे ? उसे लोग समझाते हैं कि तू विधवा हो गई है-अब तेरा पति जीवित नहीं है । पर वह जीवित नहीं है इसका यह अर्थ नहीं जानती कि मरा हुआ पीछा आता ही नहीं है। वह इन बातों को क्यों नहीं जानती इसका Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह उत्तर दिया जा सकता है कि अबोध दशाका धर्म अनिर्वार्य होता है। तारा अबोध है-बालिका है । इसीसे वह कुछ नहीं समझती । तारा ! तू अभागिनी थी तब ही तो तेरी माताने लोभके वश होकर तुझे कालके हाथ सौंपी-तेरे गलेपर छुरी चलाई । अव तु जन्मपर ऐसी रहकर अपनी माताका-पिशाचिनी माताका-उपकार मानती रहना । पर तारा ! तेरा भी एक दोष है-भयंकर अपराध । है। वह यह कि तूने नौ महीने अपनी माताके पेटमें रहकर उसे वेहद दुःख दिया था । संभव है उसने तुझे उसीका प्रायश्चित्त दिया हो ! उसे तूं भोग । इसमें सन्देह नहीं कि तेरा भाग्य तो अब जीवन भरके लिए फूट गया है। (८) आत्महत्या। कञ्चन प्रयत्न करते करते हारगई। पर मोतीलाल किसी तरह सुपथ पर नहीं आया। अन्तमें उसे निराश होजाना पडा । मोतीलालने क्यों इतनी निर्दयता धारण की ? इसका कारण है। यह हम पहले लिख आये है कि मोतीलालका चाल चलन और स्वभाव अच्छा नहीं था। वह बुरी सङ्गतिमें पडकर लुच्चे और बदमाशोंके हाथकी कठपुतली होगया था। उसे वे जितना नचाते थे वह उसी तरह नाचता -उसे स्वयंकी बुद्धि कुछ नहीं थी। मूोंके साथ खुशामदी दाल गल जाना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं । ऐसे उदाआज भी बहुत मिल सकते है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) । मोतीलालके हृदय पर किसी और भुवनमोहिनीकी प्रतिमा अङ्कित होरही थी। वह उसे जी जानसे चाहता था । केसरने भी उस पर आपना प्रेमपाश ऐसा फैलाया था कि उसे कहींसे निकलनेको जगह न थी। उसने अपने मधुर मधुर संभाषणसे उसे अपनेपर मुग्ध कर रक्खा था । उसके खजगञ्जन लोचनोंने अपने कटाक्ष वाणोंसे उसके । हृदयको बहुत कमजोर कर दिया था। उसकी सुन्दरताकी मन मो हनी छटाओंने उसके मनमें अपना पूर्ण अधिकार कर लिया था । फिर भला क्यों वह कञ्चनकी याद करे ? क्यों अपने प्रेमरसको दो भाजनोंमें डालकर अपनेको उसका अपात्र बनावे ? उसे दूसरेकी फिकरसे मतलब? इस पर भी केशरने उससे यह कहलवा लिया था-स्वीकार करवा लिया था कि मै कभी अपनी स्त्रीके साथ प्रेमका परिचय न दूगा । मेरी जीवनेश्वरी तुम्ही हो । मैं सब तरह अपनेको तुम्हें सौंपता हू। तुम्हें इस जीवनका सर्व अधिकार है। उसने ऐसा क्यों किया ? इसके कहनेकी कुछ जरूरत नहीं । कामकी अपार महिमा कौन नहीं जानता । काम वडे बडे विद्वानोंसेभी अधमसे अधम काम करा लेता है तब मोतीलालकी-मूर्ख मोतीलालकी क्या मजाल जो वह उसका अनादर कर सके। कञ्चनका भाग्य इसी कुलकलकिनी केसरकी कृपासे फूट गया है । वह आज आदर्श दुखिनी होगई है । विना विचारे केवल धनके लोभमें आकर जो अपनी कन्याका विवाह ऐसे मूर्खके साथ कर देते है फिर उसकी जो हालत होती है उसका कञ्चन आदर्श उदाहरण है । यह देख कर भी यदि हमारी जातिकी आखें न खुले तो यही कहना चाहिए कि अभी उसके भध पतनमें बहुत कुछ वाकी है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) कञ्चन कहती है अब मुझसे यह वेदना नहीं सही जाती। " इस मैने जितना कुछ सहा वह केवल एक पापिनी आशाके भरोसे पर । पर अब मुझे स्वप्न में भी यह आशा नहीं होती कि मुझे कभी प्राणनाथक सेवाका सौभाग्य मिलेगा ? मुझे वे अपनी समझकर अपनायेंगे ? फिर इस पापी जीवनको ही रखकर मै क्या करूंगी ? जबमेरा ससारमें कोई अवलम्ब ही नहीं तब मैं किसके लिए इस प्राणभारको उठाकर पृथ्वीको बोझा मारूं ? जब मेरा भाग्य सब तरह फूट ही गया है तब मै ही जीकर क्या करूंगी ? पापी दैव ! तेरे समान संसार में कोई निर्दयी नहीं है। तूं अपनी सत्ता के सामने किसीकी नहीं चलने देता । तू जो चाहता है वही कर दिखाता है । तेरे निर्दय संकल्प को धिक्कार है । कहते कहते कञ्चनकी आखोंसे आसुओं की धार वह चली । वह आकाशकी ओर मुहॅ उठा कर बोली- परमात्मा । मै विपत्तिकी मारी एक अनाथिनी हूं। संसार में मेरा कोई नहीं है । मेरा जीवन ही मुझे शूलसा लग रहा है। मुझे जीनेमें सार नहीं दीखता । मैंने आजतक जो कठिनसे कठिन दुःख सहा है वह अपनी धर्मरक्षा के लिए । पर अब मै नहीं सहूगी । मझसे यह जीवनभरका दुःख देखा नहीं जाता । इस लिए मैं अब किसी ओर ही उपायका सहारा लुंगी जिससे सदाके लिए ही दुःखसे छुटकारा पा सकूं। उस उपायके पहले मै आपसे एक प्रार्थना करूं गी। वह यह है कि मै आजतक किसी भी अवस्थामै रही हूं पर तब भी मेरा हृदय पूर्ण रूपसे शुद्ध रहा है । मैने दुःखपर दुःख भोगें हैं, पर आजतक मलीन वासनाको अपने हृदयमें स्थान नहीं दिया है । मै आपसे क्या निवेदन करूं । आप तो सब कुछ जानते है । संभव 1 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) है मेरे वाद लोगोंके हृदयमें बुरी कल्पनाका उदय हो । क्योंकि मुझे पुनीत सीता देवीकी जीवनी खूब याद है । वह पवित्र थीपूज्य थी। पर लोग उसे भी टोपोंसे मुक्त नहीं कर सके । तब मैं किस गिनतीमें हूं । लोग मेरे इस आकस्मिक ................ का वास्तविक कारण न समझ कर तरह तरहकी कल्पना करेंगे। तत्र आप उन्हें निर्मल ज्ञान देना । जिससे वे समझे कि कश्चन निर्दोष यी-निकलक थी । मैंने दु खके परवश हो जिस कामको करना विचारा है-जिसका मै अनुष्ठान करूगी-संभव है वह पापकर्म हो, पर इससे मेरा हृदय दोषी नहीं कहा जा सकेगा। क्योंकि पाप पापमें भी वडा अन्तर है। मेरा यह अनुष्ठान वह पापकर्म नहीं है जो हृदयकी बुरी वासनाके द्वारा होता है । फिर कैसा है ? यह आप जानते हो, मैं क्या कहूं। ___ मैं इतन दिनातक अबला थी पर अब मै वह कञ्चन नहीं रही। अब मुझमें वल है । म कठिनसे कठिन और असंभवसे असभव कामको भी अब कर सकती हूं । केवल कर ही नहीं सकती है, पर करके दिखलाऊंगी। मैं अपने..... ... के संकल्पको पूरा करगी। मुझे इससे उतना दुख नहीं जान पड़ता जितना कि इस अवस्थाका दुख मुझपर असह्य भार हो रहा है । जो हो आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देना । अधिक मैं कुछ नहीं कहना चाहती । ___ वह फिर वोली-प्राणनाथ ! दयासागर !! अनाथरक्षक !!! मेरा अपराध-भयकर अपराध-आप क्षमा करना । मैं आपकी यी पर आपने मुझे अपनी न समझी। इसी दु खसे-भयंकर विपत्तिसे-मुझे आपके धर्म विरुद्ध.......... ..........कहते कहते कञ्चनका गला भर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) आया। उसने बडी मुष्किलसे रोते रोते यह कह कर कि इस अमागिनी पर क्ष... ....मा. .....क.......र.......ना........क्ष........ मा.......कर.......और झटसे कुछ अपने मुहमें डालकर ऊपरसे पानी पी लिया। देखते देखते ही उसके शरीरकी ज्योत्स्ना म्लान हो चली। (८) भयंकर परिणाम । पाठक ! कञ्चनकी जीवनलीलाके साथ साथ हमारी यह छोटीसी आख्यायिका भी समाप्त होती है, पर एक जरूरी घटनाका उल्लेख करना वाकी रह जाता है। इस लिए इस परिच्छेदमें हम उसीका उल्लेख करते है। __ पूनमचन्दको मरे आज आठ वर्षके लग भग बीत चुके है। ' ताराकी उनके समयमें नो अवस्था थी वह अब नहीं । रही उसने अब बालभाव छोड़कर युवावस्थामें पदार्पण किया है । उसके भावोंमें पहलेसे अब जमीन आशमानका अन्तर है । अव वह पति पत्नीके भावको भी समझने लगी है। कामकी कृपासे अब उसमें अपूर्व श्रीका आविर्भाव दीख पड़ता है। उसके निप्कलंक मुखचन्द्रकी ज्योत्स्नासे उसका हृदय प्रकाशित हो उठा है। वह उसके उजालेमें न जाने किसे ढूंढ रही है । पर उसके मुखकी निराशा और हृदयकी व्यग्रतासे जान पड़ता है कि उसे अपनी ए. प्रिय वस्तुको प्राप्ति नहीं हुई । उसके सुन्दर लोचन अंगूठीमें - जड़े हुए हीरेकी तरह दमकने लगे । बेचारा खञ्जनतो उन्हें देख Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) · कर इतना लज्जित हुआ कि उसे शहरका निवास ही परित्याग कर देना पड़ा। उसकी भ्रवें इतनी चञ्चल होगई कि क्या मजाल जो • बिजली भी उन्हें पराजित कर सके ? वेचारे बाणकी क्या ताकत • जो मनुष्योंके हृदयमें इनके वरावर गहरे घाव कर सके उसके होठोंकी मधुर हँसी लोगोंके कठोरसे कठोर हृदयमें तीरकी तरह मिदने लगी । उनकी लालिमा प्रात कालीन सूर्यकी लालिमाको दवाने लगी। उसके स्तनोंकी सुन्दरताने सुधापूरित कलशोंकी गोमाको लज्जित कर दी और उसके सुवर्णमय शरीरके मनोहारी लावण्यने सुमेरु शैलकी कान्तिको भुला दी। था.में यों कह लीजिए कि अब तारा सब तरह कामके आधीन हो चुकी । कामने उसपर अपनी राज्यसत्ताकी-अपने आधिपत्यकी-मोहर लगा दी। तारा अब समझने लगी कि मैं बहुत वर्षोसे अनाथिनी हो चुकी हूं। मुझे मेरी माताने-राक्षसी माताने-इस नरकमें ढकेली है । वह . उसे अव जीती जागती पिशाचिनी दीग्वने लगी । वह कैसी भी है, पर अत्र हो क्या सकता है। अब तो उसकी आखोंके सामने निराशाका अथाह समुद्र लहरें लेता हुआ दिखाई पडता है । वह कर्तव्य विमूढ अवश्य है पर तब भी उसके भावोंमें परिवर्तन होगया है । हम उसमें पवित्रता नहीं देखते । उसका हृदय कलंकसे काला जान पड़ता है। उसकी दृष्टिमें अब चञ्चलता है । उसका मन अधीर है । वह उसे अपने काबूमे रखनको असमर्थ जान पड़ती है। उसका यह सत्र चरित्र देखकर सभव है पाठक ताराको अपराधिनी कहें, पर इसमें उस वेचारीका दोष क्या । उसका तो विवाह भी उस समय हुआ है जब वह अनान वलिका थी । फिर विवाह भी एक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जहीसके साथ जो अपनी मौतके दिन पूरे कर रहा था। यह दोष यह अपराध उसकी पापिनी माता और निर्दयी-नरपिशाच-पूनमचन्दका है जो दोनोंने अपने अपने स्वार्थके वश होकर उस गरीबिनी आप्तमझ वालिकाके गले पर छुरी फेरी-उसे जीवन भरके लिए-नरककुण्डमें ढकेलदी। ताराका हृदय अब दिनों दिन बुरी वासनाओंका स्थान बनने लगा । पाठक ! आप कुछ भी कहें पर इसमें सन्देह नहीं कि कामसे विजय पाना-उसके विकारोंको नष्ट करना-सर्व साधारणका काम नहीं । जिस कामने चारुदत्त सरीखे कर्मवीरको पाखानेकी हवा खिलाई, रावणके विशाल राज्यको रसातलमें मिलाकर उसे कलकियोंका शिरोभूषण वनाया, सत्यंधर सरीखे राजतत्ववित् राजाका सर्वनाश कर दिया, ब्रह्माको अपनी ही पुत्रीपर प्रेमासक्त कर उसे अपने देवपनेके उच्चासनसे गिरा दिया, संसार के उपास्य शंकरको आधे स्त्रीरूपमें परिवर्तित कर दिया और चन्द्रको अपने गुरुकी पत्निके प्रेमपाशमें फंसा दिया। वह काम-जगद्विनयी काम-वेचारी ताराके अवला ताराके-द्वारा जीता जा सके यह नितान्त असंभव । अधियारी रात है। शहर भरमें कहीं शब्दका नाम नहीं। चन्द्रमाका अभी उदय नहीं हुआ है । जान पड़ता है कि वह पहलेहीसे तो कलंकी हैं और आजकी असाधारण कलंकित घटनाको देखकर वह अपनेको क्यों और अधिक कलंकित करे ! क्योंकि कलंकियोंकी छायाका छूना भी तो कलकित करता है । यही समझ कर वह अभीतक उदय पर्वतपर नहीं आया है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) एक वजा । ताराकी नींद टूटी । उसकी आखोंमें पहलेहीसे नींद कहा थी पर कल्पना कर लीजिये कि वह अपनी शय्यापर पड़ी है । इस लिये देखनेवालोंको तो निद्रितही जान पड़ेगी । उसने उठकर अपने कमरे के कवाड खोले और वह धीरे धीरे मकानकी सीढिया तय करती हुई बचिके मजिलमें आ पहुची । वहीं पर मोतीलालके सोनेकी जगह थी । उसने दरवाजेके पास खडी होकर मोतीलालको पुकारना चाहा, पर सहसा उसकी हिम्मत न पडी । न जाने क्या सोच समझकर वह पीछी अपने कमरे में चली गई और शय्यापर आ गिरी । पर अब उसे नींद नहीं आती । वह उधर इधर करवटें बदलने लगी । उसका हृदय वेचेन होगया । वह हिम्मत करके उठती है पर पीछी न जाने क्यों बैठ जाती हैं । वह कवाड खोलकर कुछ सीढ़िया उतरती है और पीछी लौट आती है । ग्रोंही करते करते उसे दो घंटे होगये । अबकी बार वह अपने दिलको मज़बूत करके उठी और बिना किसी रुकावटके नीचे उतर आई। उसने मोतीलाल के कमरेके पास खडी होकर धीरे धीरे कवाड खट खटाये । मोतीलाल भरनींद में था । पर किसी भयानक स्वप्नके देखनेसे वह हापता हापता उठ बैठा 1 कवाङकी खटखट आवाज सुनकर उसे कुछ सन्देह हुआ । उसने भीतरही से पुकारा- कौन है ' तारा धीरेसे वोली कि यह तो मै हू, जरा कवाड खोलो । मोतीलालने ताराका स्वर पहचानकर कवाड खोल दिये । तारा भीतर जाकर बैठ गई और हापते हापते उसने कहा कि मै ऊपर सोती हुई थी । न जाने एका एक क्या धड़ाका हुआ । मुझे डर लगने लगा । इसीसे मै यहा आगई । मोतीलालने 1 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) यह कह कर, कि अच्छा अब यही सो रहो सवेरे देखा जायगा कि क्या होता था, सोगया । तारा भी वहीं पर लेट गई। पर भयभीत उसका हृदय अभी भी शान्त नहीं हुआ। वह और भी अधिक व्याकुल होगया । तारासे चुप न रहा गया । उसने बातोंका सिल सिला छेड़ ही तो दिया । ___ वह बोली-मोतीलाल ! देखो तो अपना घर थोड़े ही दिनोंमे कैसा सूना सूनासा होगया ? जिधर मैं आंख उठाकर देखती हू मुझे तो उधर ही वड़ा डरावना लगता है। मोतीलाल-भाग्यका ऐसा ही फेर कहना चाहिए। तारा-यह देखकर वहुत दुःख होता है कि इतने बड़े घरमें केवल तुम और मै ही बची हूं। और फिर देखो तो दोनों ही अभागेदोनों ही दुखी है। कैसी दैवी घटना ? हां क्यों मोतीलाल ! तुम अब कभी वेचारी वहूकी भी याद करते हो ? देखो, न जाने उसे क्या सूझी जो वह आत्महत्या करके मर गई ? वह भी हमारे देखते देखते ! __ मोतीलाल-उसके भाग्यहीमें ऐसा लिखा था, इसका हम क्या करें। __ तारा-मोतीलाल ! वह थी वडी सुन्दर । आखिर उससे भी हमारे घरकी बहुत कुछ शोभा थी । देखो सुन्दरता भी क्या चीज है जो तुरत दूसरेके मनको अपनी और अट खींच लेती है ? हा मोतीलाल तुमसे मै एक बात पूछती हूं उसे ठीक ठीक बताना १ मुझसे बहू अधिक सुन्दरी थी अथवा मै उससे अधिक हूँ? Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) मोतीलाल- मैंने उसे बहुत बार तो देखी नहीं । पर हां कभी कभी अवश्य देखी है । वह तो मुझे लकड़ीकी तरह मूखी भूखी और पीली पीली जान पड़ती थी। मुझे दो उसे देखकर एक तरह अरुचि हो जाती थी । मैं कह सकता हूं कि उसमें और तुममें जमीन आशमानकासा अन्तर है । तारा - मोतीलाल ! क्या तुम मुझे उससे अधिक सुन्दरी समझते हो ! अच्छा तत्र तो मै तुम्हारी दृष्टिमें बहुत वत्रसूरत हू । मोतीलाल ! सौन्दर्य भी कैमा प्यारा होता है ? वह भी फिर स्त्रीका ' तुम सच तो कहो कि तुमने भी कभी मौन्डपर प्रेम किया है। मोतीलाल ! तुमपर मेरा बड़ा प्रेम है । हा ठीक भी तो है, मेरे दुखनेको तुन्हारे सिवा और हेही कौन ? तुम्ही मेरी आवक तारे हो । किर तुमपर ही प्रेम न होगा तो किसपर होगा ? पर मोतीलाल । यह जानकर हृदयपर वज्रका पहाड़ गिर पड़ता है कि मैतो दुखी हूं सो हूही पर साथ ही तुम्हें भी दु.खके अनगरसमुद्रम डूबा हुआ देखती हूं। क्यों मोतीलाल ! क्या तुम कोई उपाय नहीं करते जिससे मैं तुम्हें सुखी देख सकूं ? मोतीलाल - तुम क्यों इतनी चिन्ता करके दुखी होती हो ' देखा जायगा । ताग - हां मोतीलाल | सुनो तो तुम अपना विवाह क्यों नहीं कर लेत ? मोतीलाल -- एक विवाह ही बड़ी कठिनताले हुआ था. अत्र न जाने कितनी तकलीफ उठानी पंडगी तारा- क्यों ? तकलीफ कैसी ! Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) मोतीलाल - मुझे तो कुछ मालूम नहीं पर पिताजी कभी कभी कहा करते थे कि मोतीलाल के विवाहमें बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ी थी । तारा — अच्छा जाने दो। तुम्हें विवाह करके ही क्या करना है ! जवतक कि.............हां मोतीलाल ! यह तो कहो कि प्रेम करना कैसा है ? और तुम उसे कैसा समझते हो ? तारा - निर्लज्ज तारा-मोतीलालको वातोंमें लगाकर धीरे धीरे उसके पलंगपर जा बैठी । मानो घीके पास अग्नि आ विराजी । नीति कारने बहुत ठीक कहा है अङ्गारसदृशी नारी नवनीतसमा नराः । तत्तत्सान्निध्यमात्रेण द्रवेत्पुसा हि मानसम् ॥ आगे क्या हुआ ? यह लिखनेको हम लाचार है । उपसंहार | तारा बहुत दिनोंतक आनन्द मनाती रही । पर पापका - महापापकाफल भयंकर होता है। उसे अपने पाप छिपानेके लिए एक अनर्थ और करना पडा । वह क्या ? भ्रूणहत्या - बालहत्या | जब वह इस पाप कलङ्कसे बचनेके लिए बच्चेको -अपने जिगरको - कुए में डालने गई तत्र पांव फिसल जानेसे उसके डूब मरी । अभागे भारत ! तेरी छातीपर तो ऐसे महापातक दिन - रात हजारो ही होते है । इसीसे तेरा अधःपतन हुआ है - तेरा सर्वनाश हुआ है । साथ साथ आप भी 1 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) एकता। यह वात किसीसे छिपी हुई नहीं है कि ऐहिक और पारलौकिक उन्नतिका वीज एकता है। यदि हम संसारकी प्रत्येक वस्तु पर ध्यान देंगे तो हम जान सकेंगे कि वे सब एकतासे खाली नहीं है। देखिये, वर्णमालाके अक्षरोंकी एकतासे शळ पद वाक्यादि बनते है । वाक्योंके द्वारा हम अपने इष्ट अभिप्रायोंको कहकर तथा लिखकर प्रगट कर सकते है । जैन वाङ्मय, जिससे हमारा आत्मकल्याण होता है, एक मात्र वर्णमालाके अक्षरोंकी एकताका प्रभाव है । मंत्र तत्रका अचिन्त्य प्रभाव भी एकताके विद्युत् चमत्कारसे खाली नहीं है । वस्त्र, जिसके द्वारा हम अपने शरीरकी रक्षा करते है वह भी सूतके डोरोंकी एकताका आविष्कार है। बीमारियोंको निर्मल करनेवाली औषधिया मी एकताके मंत्रसे पवित्रित है। जिन घरोंमें हम रहते है वे भी ईट मिट्टी पत्थर आदिकी एकतासे बने है । सूतके धागोंकी एकतासे बने हुए रस्सों द्वारा मदोन्मत्त हायी वाधे जाते है-इत्यादि । जिधर देखिए उधर ही आपको सारा संसार एकता मय दीख पडेगा । फिर क्यों न हम भी इस महाशक्तिके प्राप्त करनेका प्रयत्न करें क्यों न इसे अपनी नाति भरमें फैला दें ? यह तो हुई एकताकी महिमा । अव अनेकताके महत्त्वको सुनिये-जहा इसका पदार्पण होता है वहीं सब उन्नतिका अन्त हो जाता है। सब सामाजिक और धार्मिक काम नष्ट हो जाते है । परस्परमें कपायोंकी अग्नि धधक उठती है । हृदय द्वेष और ईपीका स्थान बन जाता है। भाईको भाई घृणा दृष्टि से देखने Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) लगता है । जिस घरानेमें, जिस वंशमें, जिस जातिमें, जिस देशमें और निस राष्ट्रमें अनेकता विस्तार हो रहा है, समझलो कि उसका भविष्य अच्छा नहीं है । सामाजिक शक्तिको निर्मूल करनेवाली एक मात्र फूट है । जैननाति अनेकताके ही कारण रसातलमें पैठती जा रही है । आज यूरोपियन, पारसी, आर्यसमानी आदि सभी एकताके प्रभावसे दिनोंदिन उन्नतिके शिखरपर आरूढ हो रहे है ।पर खेद है कि जैन समाजने अभीतक अपनेको एकताके सूत्रमें गुम्फित नहीं किया । न मालूम कब वह शुभ दिन आवेगा जब सब जैनी एक चित्त होकर धार्मिक, लौकिक और पारमार्थिक उन्नति करनेमें संलग्न होंगे। दिगम्बर जैनियोंमें खण्डेलवाल जातिकी संख्या सबसे अधिक है। पर अविद्या और अनेकताकी मात्रा भी सबसे अधिक इसी जातिमें पाई जाती है । लश्कर, जयपुर, अजमेर, इंदौर भरतपुर, कुचामन इत्यादि नगरोंमें, जहा इस जातिकी बहुत संख्या है वहां विकराल फूट पड रही है । जातिमें तड़े पड़ गई हैं । एक तडवाले दूसरी तडवालोंको शत्रुभावसे देखते है और उनकी मानहानि करनेमें बिलकुल नहीं सकुचाते है। जिस खण्डेलवाल जातिमे प्राचीन समयमें पचो द्वारा नातीय झगड़े मिटाये जाते थे, आज वही जाति अपना निवटेरा करानेको दुसरेके द्वार द्वार ठोकरें खाती फिरती है । पहले जिसकी शक्ति इतनी बड़ी चढ़ी थी कि यदि जातिमें कोई कुलाडार व्यभिचारी होता तो जातिसे उसका बहिप्कार किया जाता था तथा और भी अन्याय प्रवृत्तिका उचित दण्ड देकर धार्मिक मर्यादा वनाई रक्खी जाती थी, पर आज वे सब बातें लोप होगई। पोंमें प्रपंच फैल गया । लौकिक लज्जा जाती रही । जो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) धर्म विरुद्ध कार्य, धर्म-धुरंधर बंधुओं और विद्वानों द्वारा जातिसे वंदकिये गये थे वे ही आज निरर्गलतासे जारी होगये । जैनी दयाधर्मी कहलाते हैं, परन्तु अपने भाइयोंसे वे महानिर्दयताका वर्ताव करनेमें सदा कटिबद्ध रहते हैं। इसीसे कहना पड़ता है कि.न मालूम इस .जातिका क्या होनहार है ? एक समय यह जाति शान्ति और एकताकी आदर्श जाति समझी जाती थी, पर आज वह सब स्वप्नकीसी लीला जान पड़ती है। उसमें अनेकता और अशांतिका पारावार नहीं रहा । जहां देखो वहां जातिके. भाई आपसमें सुलह करना महापातक समझने लगे । उनका क्रोध आंखोंमें उवल उठने लगा। उन्हें अपने ही सर्मियोंसे बदला लेनेके लिये अदालतों में पहुंचना पड़ा । वहां पहुंचते ही उनकी आंखोपर पट्टी बंध गई। मुकदमें चलने लगे। अंधाधुंध द्रव्य खर्च होने लगा। जगतमें अपयशका डंका बज गया । इस प्रकार धर्म, धन, मान, यश, सबको वे जलांजुला दे बैठे । पाठकगण ! खण्डेलवाल जातिके लिये यह कितनी लज्जाकी वात है ? इससे अधिक और क्या हमारी अधोगति हो सकती है ! __इस सर्वेकपा जातीय फुटने-बरेलू झगडोंने-उन्नतिके मार्गमें कांटे बोदिये हैं। अन्य जातियोंमें जातीय भाइयोंका पारस्परिक प्रेमभाव देखकर हृदयमें जितना ही सन्तोष होता है उससे भी कहीं अधिक दुःख अपनी जातिकी दुर्दशाके देखनेसे होता है । आश्चर्य इस बातका है कि जीवमानसे प्रेम करना जिसका प्रधान कर्तव्य था उसीका उससे तिरोभाव होगया । यहांतक कि कुटुम्बीय कलहके कारण वंशके वंश नष्ट होगये।भाई भाईमें, पति स्त्रीमें, पिता पुत्रमें, वहिन भाईमें Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) दुश्मनी होगई । फूटने समूह शक्तिके सर्वस्वको अपहरण कर लिया । सहनशीलताका सर्व नाश होगया । मानकपायके वश हो । प्रत्येक अपनेको अहमिन्द्र समझने लगा । परस्पर सहायताकी आशापर पानी फिर गया । इसी प्रकार इस जातिसे उपगृहन और स्थितिकरण अंग भी विदा होगये । अर्थात् साधर्मियोंके दोषोंको ढांकना और उन्हें धर्मसे डिगते देखकर धर्मके सन्मुख करना इन धर्मवृद्धिके दोनों कारणोंका अभाव होगया । ___ इग्लैंड, जर्मनी, जापान आदि देशोंमें जो आश्चर्यकारी उन्नति हो रही है उसका कारण एकता है । सहस्रों क्वापरेटिव सोसाइटी, कंपनिया, मिलें, जिनसे लौकिक उन्नति होती है और लाखों मनुष्योंका निर्वाह होता है, एकताकी शक्तिसे चलते है । सब जानते है कि विलायतवाले अपने कला कौशल और पुरुषार्थके वलसे संसारका धन अपने देशकी ओर ले जा रहे है और उसे चकित कर रहे है तो भी हम मोह निद्रासे जागृत नहीं होते। देवने हमारे पाव पकड़ रक्खे है। खण्डेलवाल जातिमें धनकी कमी नहीं है, तो भी कोई कंपनी, मिल, बैंक आदि इस जातिके धनवानोंने स्थापित की हो यह देखने में नहीं आता । इसीसे दिनोंदिन यह जाति दरिद्रताके ग्रहसे ग्रसित होती जा रही है। पुरानी शास्त्र विरुद्ध रूढ़ियोंके घुनसे हम घुने जा रहे है । यदि कोई सुधार करना चाहता है तो रूढिके गुलाम उसका कठ पकड़ लेते हैं और बुरी तरह सामना करने लगते है। जैसा कि पाठक, " बडनगरमें विद्याशत्रुओंकी धींगाधींगी " से मालूम कर चुके है । उद्योग प्रधान कार्यालय खोलनेका साहस नहीं होता । इसका कारण अविद्या और अविश्वास Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) है। इस जातिके धनाढयोंके हृदयमें करुणादेवीका वास बिल्कुल नहीं है। तभी तो वे जातिके अनाथोंकी रक्षा नहीं करते, उन्हें शिक्षा प्राप्तिके सुगम मार्गमें नहीं लगाते और न इस वातकी परवा करते कि अपनी जातिम विना उद्योगके दु खसे निर्वाह करने वाले जैनी भाई कितने है? यदि बड़े बड़े कारखाने खोले जावें और गरीब जातिभाई उनमें कामपर लगाये जावें तो उनका निर्वाह और जातिकी दरिद्रता नष्ट होने लगे। पर उनमें प्रेमके-जातीय प्रेमके-विना इतनी करणा कैसे हो सकती है ? एक समय पांचों इद्रियोंमें अगडा खड़ा होगया । प्रत्येक इन्द्री अपनी अपनी प्रधानताका कीर्तन करने लगी कि मेरे न होनेसे शरीरका कोई भी काम नहीं चल सकता । इसी कलहके कारण एक दिन स्पर्शन इद्रियने स्पर्श करना, जीभने स्वाद लेना, नाकने गंध लेना, आखने देखना और कानने सुनना छोड़ दिया। परिणाम यह हुआ कि निष्क्रिय रहनेसे वे सब शिथिल पड़ गई। तब उन्हें मालूम होगया कि जबतक हम बिना विरोधके एकतासे आपना कार्य करती रही तबतक हृष्ट पुष्ट और कार्यतत्पर वनी रहीं। पर जब हममें विरोध फैल गया तब एक ही साथ हम सब निवल होगई । ठीक यही दशा खण्डेलवाल जातिकी हो रही है। जवतक उसमें फूट रहेगी तवनक वह किसी प्रकारकी उन्नति नहीं कर सकती। आपको गंजीफा अर्थात् तास खेलनेका प्रसंग अवश्य मिला होगा । कहिये, आपने इस खेलसे किस प्रकारकी शिक्षा ग्रहण की ? इन पत्तोंके खेलमें भी एक अद्भुत शिक्षा दी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई है । उसपर ध्यान दीजिये। आप जानते है कि गुलामको रानी जीत लेती है, रानीको बादशाह जीत लेता है और बादशाहको इक्का जीत लेता है । पर इक्काको कोई नहीं जीत सकता । राना मी उसके साम्हने हार मानता है। यह इक्का कोई अन्य वस्तु नहीं है। किन्तु एकताको ही इक्का कहते हैं। इस लिये जहां एकता है वहीं जीत होती है। यदि आप अपनी जातिकी उन्नति करना चाहें तो मेलसे काम करना सीखिए, साधर्मियोंसे वात्सल्य धारण कीजिए और एकताके प्रबल किले द्वारा अपनी जातिको सुरक्षित बनाइये। फूटने हमारा सर्व नाश कर डाला है। इसलिए अब हमें उसका साथ छोड़ देना जरूरी है। और तब ही हम अपनी उन्नति कर सकेंगे। परमात्मा करे वह दिन हमें शीघ्र प्राप्त हो जब हम भाईसे भाई गलेसे लगे और मिलकर जातिकी अवनतिको उन्नतिमें परिणत करदें। प्रार्थी--बुद्धमल पाटनी, इंदौर । बारह भावना। अनित्यभावना। देह गेह सजनेमें लगे क्या हो, गिरिधर देह गेह जोवन अनित्य सब मानिये, पीपलके पान सम कुंजरके कान सम वादलकी छांह सम इन्हें चल जानिये। विजलीकी चमकसी पानीके बुदबुदसी इन्द्रके धनुपसी ये सम्पत्ति प्रमानिये, दया दान धर्ममें लगाके इसे भली भांति गनिये परोपकार सुख मन आनिये । * * वावा भागीरथजीके द्वारा प्राप्त । - - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) अशरणभावना | राजा महाराजा चक्रवर्ती सेठ साहूकार सुर नर किन्नर सकल गिन जाईये, कोई भी समर्थ नहीं किसीको बचानेको आसरा इन्हींसे फिर किस तरह पाइये । तरण एक गुरुके चरण सोहें, उनकी शरण गह ज्ञान मन लाइये, गाइये गुणानुवाद गिरिधर ईश्वरके भयको नसाइये औ आनंद मनाइये । संसारभावना । नाना जीव बार बार जनम जनम मरें नये नये घरें देह नाचकर लीजिए, जग है असार यहा कोई वस्तु सार नहीं दुखभरी गतिया है चारों देख लीजिए । गिरिधर चित्तमें न दोप कहीं घुस बैठे इससे सढ़ा ही सावधान रह लीजिए, सबकी भलाईकर रखिये चरित्र शुद्ध पीजिए सुज्ञानामृत आत्मध्यान कीजिए । एकत्वभावना आये है अकेले और जायगे अकेले सत्र भोगेंगे अकेले दुख सुख भी अकेले ही, माता पिता भाई बन्धु सुत ढारा परिवार किसीका न कोई साथी सब है अकेले ही, गिरिधर छोड़कर दुविधा न सोचकर तत्त्व छान बैठके एकान्तमें अकेले ही, कल्पना है नाम रूप झूठे राव रक भूप अद्वितीय चिदानन्द तुम हो अकेले ही । अन्यत्त्वभावना । घर बार धन धान्य दौलत खजाने माल भूषण वसन बड़े बड़े ठाठ न्यारे है, न्यारे न्यारे अवयव शिर, धड, पाव न्यारे जीभ, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) त्वचा, आख, नाक, कान आदि न्यारे हैं । मन न्यारा चित्त न्यारा चित्तके विकार न्यारे न्यारा है अलार सकल कर्म न्यारे हैं, गिरिधर शुद्ध वुद्ध तू तो एक चेतन है जगमें है और जो जो तोसे सारे न्यारे है। अशुचिभावना। गिरिधर मलमल सावू खूब न्हाये धोये कीमती लगाये तेल . बार वार वालमें, केवड़ा गुलाव वेला मोतियाके सूत्रे इत्र खाये सूत्र माल ताल पड़े खोटी चालमें । पहने वसन नीके निरख निरख काच गर्व कर देहका न सोचा किसी कालमें, देह अपवित्र महा हाड़ मांस रक्त भरा थैला मलमूत्रका बंधा है नसनालमें। ___आस्रवभावना। मोहकी प्रबलतासे कपायोंकी तीव्रतासे विषयोंमें प्राणीमात्र देखो फंस जाते है, यहा फसे वहा फंसे यहा पिटे वहां कुटे इसे मारा उसे ठोका पाप यों कमाते है । पड़ते परन्तु जैसे जैसे है कषायमन्द वैसे वैसे उत्तम प्रकृति रच पाते है, गिरिधर बुरे भले मन वच काययोग जैसे रहें सदा वैसे कम वन आते हैं। संवरभावना। तोड़ डाल भ्रमजाल मोहसे विरत हो जा कर न प्रमाद कभी छोड़दे कषाय तु, दूर हो विचार वात करनेसे विषयोंकी माथे पड़ी सारी सह मत उकताय तू । मन रोक वाणी रोक रोक सव इंद्रियोंको गिरिघर सत्य मान कर ये उपाय त, वधेगे न कर्म नये निरेपक्ष होके सदा कर्तव्य पालनकर खूब ज्यों सुहाय तू। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) निर्जराभावना | " इससे न बात करो इसे यहा न आनेदो इसको सतावो मारो क्योंकि दोषवान है, कपटी कलंकी कूर पापी अपराधी नीच कामी क्रोधी लोभी चोर कुक्रमोंकी खान है। " रखके विचार ऐसे लोग जो सतावें तो भी सहले विपत्तियोंको माने ऋणदान है, गिरिधर धर्म पाले किसीसेन वाधे वैर तपसे नसावे कर्म वही ज्ञानवान है । लोकभावना । बाकी कर कोन्हियोंको जरा पात्र दूरे रख आदमीको खडाकर गिरिधर ध्यान धर, चतुर्दश राजू लोक ऐसा ही है नराकार उसमें भरे है द्रव्य छहों सभी स्थानपर। एकेंद्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय त्यों पचेन्दिय सज्यसंज्ञी पर्याप्तापर्याप्त कर, भरे ही पडे है जीव पर सत्र चेतन है स्वानुभव करें त्यो त्यों पावे मोक्षधाम वर । वोधिदुर्लभभावना | एक एक श्वासमें अठारे अठार वार मर मर घरें देह जग जीव जानलो. बड़ी ही कठिनतासे निकले निगोदसे तो अगणित बार भमे भव भव मानलो । दुर्लभ मनुष्य भव सर्वोत्तम कुल धर्म पाये हो गिरघर तो सत्य तत्त्व छानलो, होकर प्रमाद वश कालक्षेप करो मत सबकी भलाई करो निजको पिछानलो । धर्मभावना | बाहरी दिखावटोंको रहने न देता कहीं सारे दोष दूर कर सुख उपजाता है, काम क्रोध लोभ मोह राग द्वेप माया मिथ्या तृष्णा मद मान मल सबको नसाता है । तन मन वाणीको बनाता है ४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) विशुद्ध और पतित न होने देता ज्ञान प्रकटाता है, गिरिधर धर्म प्रेम एक सत्य नगवीच परमात्म तत्त्वमें जो सहज मिलाता है । गिरधर शम्मा झालरापाटन । संतानशिक्षा। माता शत्रुः पिता वरी येन वालो न पाठितः । " सन्तान उत्पन्न करके उसके शरीरकी रक्षा करना, उसे पुष्ट करना और उसके पालन पोपणके लिए धन इकठ्ठा करना ही सन्तानके प्रति माता पिताका कर्तव्य नहीं है। किन्तु जो जीवनकी अपेक्षा बहुत मूल्यवान है और जिससे मानव जीवन सार्थक होता है उस अमूल्य ज्ञान और धर्मोपदेशसे अपनी सन्तानको भूपित करना माता पिताका प्रधान कर्त्तव्य है।" ___ सन्तानके प्रति माताका कर्त्तव्य दो प्रकार है । प्रथम-सन्तानपालन अर्थात् सन्तानकी शारीरिक उन्नति और द्वितीय-संतानशिक्षा और चरित्रगठन । सन्तान पालनके सम्बन्धमें इस समय न लिखकर फिर कभी लिखेंगे । आज केवल सन्तानशिक्षा और चरित्रगठनके सम्बन्धमें कुछ लिखते है। गृह ही मनुष्यका प्रथम और प्रधान विद्यालय है। माता उसकी मुख्य अध्यापिका है । इसी विद्यालयमें मानव हृदयमें सर्व प्रकारके गुण और दोषका वीज अङ्कुरित होता है । किसी एक विद्वानने निश्चय किया है कि सन्तान, डेढ वर्षसे ढाई वर्षके बीचमें संसारके पदार्थगत और अपने तथा परके मानसीक प्रकृतिगत ज्ञानका Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) जितना ज्ञान प्राप्त करती है, उतना ज्ञान जीवनके अवशिष्ट भागमें वह कभी नहीं कर सकती। किसी एक अंग्रेजी पुस्तकों लिखा है कि किसी स्त्रीने अपनी सन्तानको चार वर्षको अवस्थामें किमी धर्मगुरुके पास लेनाकर उससे अपनी इच्छा प्रगटकी कि महाराज ! कबसे मैं अपने बच्चेको पहाना आरभ करू । उसके उत्तरमें धर्मगुल्ने कहा कि सन्तानकी अवस्था चार वर्षकी हो चुकी और तबतक उमे शिक्षा देना आरंभ नहीं किया तब कहना चाहिये कि उसके जीवनके अति मूल्यवान चार वर्ष तुमने व्यर्य ही नष्ट कर दिये । इसके लिये तुम्हें पश्चात्ताप करना चाहिए । वालक जब अपनी माताकी और देखकर हँसने लगता है तब उसी हसीके माय साथ वालको शिक्षा देना माताका कर्तव्य है। कारण तवहीसे शिक्षाका समय उपस्थित होता है। __ शिक्षाप्रणाली दो प्रकारकी है। एक दृष्टान्त द्वारा और दूसरी उपदेश द्वारा । इन दोनोंमें पहली प्रणाली अधिक कार्यकारी और जीवनपर असर डालनेवाली है। इस दृष्टान्तप्रणालीसे माताके द्वारा नाना तरहकी शिक्षा प्राप्त होती है। क्योंकि दूसरोंका अनुकरण करना वालकोका खाभाविक कर्तव्य होता है। वालकगण परिवारके वीचमें जो कुछ देखते हैं, फिर वे उसीके करनेकी चेष्टा करते है और जो कुछ सुनते हैं वे उसे बोलना चाहते हैं। वालोंका मन हरिततृणकी तरह अत्यन्त कोमल होता है। सुतरा तृगको निस भाति नवाना चाहो वह नवाया ना सकता है । वही हालत नालकोंके मनकी है। उसे निस तरह शिक्षित किया जाय वह उसी तरह हो सकता है । उममें एक और विशेषता है । वह यह कि उस समयकी शिक्षाका असर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) उनके जीवनपर्यन्त वना रहता है। उसका फिर परिवर्तन नहीं होता। ___ बालक परिवारके माता, पिता, भाई, बहन आदि कुटुम्बियोंमें यद्यपि प्रत्येकका अनुकरण करता है, परन्तु उन सबमें माता ही प्रधान है । माताके साथ किसीकी तुलना नहीं की जा सकती। किसी विद्वानने इस विषयमें अपना अभिप्राय लिखा है कि " बालकका चरित्रगठन और भावी उन्नतिका होना एक मात्र माताके गुण और दोषके ऊपर निर्भर है। इस विषयमें पिताकी अपेक्षा माताकी ही प्रधानता स्वीकार करनी पड़ती है। उसने और भी लिखा है कि यूरोपमें यह पद्धति है कि किसी कारखानेका मालिक जब अपने कारखानेमें किसी बालक अथवा बालिकाको किसी कामपर नियुक्त करना चाहता है तब वह उनकी माताका चरित्र अच्छा जान लेनेपर उन्हें निःसन्देह अपने यहां रख लेता है। पृथिवीके जितने बड़े बड़े महात्माओंके जीवन चरित्र पढ़े है, जो अपनी असाधारण योग्यताके द्वारा संसारमें प्रसिद्ध हो गये है, उनमें अधिक महात्माओंने यह बात मुक्तकण्ठसे स्वीकार की है कि हमारी विद्या और बुद्धिकी जितनी कुछ उन्नति हुई है उसका मूल कारण हमारी माता है।" " महावीर नेपोलियन बोनापार्ट सदा यह कहा करता था कि सन्तानका भावी सुख दुःख अथवा उसकी उन्नति अवनति यह सब माताके उपर ही निर्भर समझना चाहिए । माताकी दी हुई शिक्षा ही हमारे ज्ञान और उन्नतिकी प्रधान कारण है। " __ इनके सिवा और एक एजनीतिज्ञ अमेरिकाके विद्वानने लिखा है कि "बालकपनमें मैरी माता हाथ पकडकर बैठ जाती और Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) कहती कि " तुम्हारा पिता (ईश्वर) मोक्षमें है " यदि वालकपनकी ये बातें मुझे याद न रहती तो सचमुच मैं नास्तिक हो जाता । संसारमें ऐसे उदाहरणकी कमी नहीं है। हम अपने जीवनमें माताकी दी हुई शिक्षाका जो कुछ फल भोग रहे है, उससे लाभ उठा रहे हैं, उसके द्वारा ही माताके गुण दोष हमारे जीवनमें किस तरह अनायास अथवा दृढ़तासे कार्य करते है यह हम जल्दी समझ सकते हैं । उपदेशकी अपेक्षा माता पिताका व्यवहार बालकके चरित्रगठनमें अधिक काम करता है । ऐसा देखा जाता है कि उपदेश और हो और कार्य और ही हो तत्र भी बालकगण उपदेशका छोड़कर कार्यका ही अनुसरण और अनुकरण करते है । सन्तानकी शिक्षा और उसके चरित्रगठन के सम्बन्धमें माताके गुरुत्वकी और हमारी वर्तमान अशिक्षितावस्थाकी मीमांसा करने पर सन्तानके उन्नतिकी आशासे निराश होना पडता है । हमारे देशमें सच्ची माता नहीं यह सामान्य लज्जा और दुःखका विषय नहीं है। जिसके ऊपर सन्तानकी शारीरिक, मानसीक और नैतिक उन्नति निर्भर है उसे किस तरहकी गुणवती और विदुषी होनी चाहिए यह शब्दों द्वारा समझाना कठिन है । ( १ ) बालकगण उपदेशकी अपेक्षा कार्यका ही अधिकतर अनुसरण करते है । इस लिए सन्तान के सामने किसी तरहका बुराकार्य नहीं करना चाहिए और न कभी बुरे वचन बोलना चाहिए। तुम्हारे खोटे व्यवहार करनेसे, दूसरेके प्रति अन्याय करनेसे अथवा किसीको ठगनेसे बालक के सुकोमल हृदयमें उसी तरहका चित्र अङ्कित होजा J Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) ता है। फिर उसे हजारों उपदेश दीजिए पर वह दोष कभी नहीं दूर होनेका । बहुतसे ऐसे मनुष्य हैं जो बालकको अबोध समझ कर उसके सन्मुख खोटा व्यवहार करते लज्जित नहीं होते। विचार करनेसे जान पड़ेगा कि यह केवल उनकी मूर्खता है। क्योंकि वालकके स्वच्छ-निर्मल हृदयदर्पणमें माताका प्रत्येक कार्य प्रतिबिम्बित होता रहता है। (२)बालकोंकी हर एक तरहकी बातें पूछनेमें स्वाभाविक उत्कण्ठा होती है। इस लिए बालक यदि कुछ देखकर अथवा सुनकर उस विषयमें पूछताछ करे तो माताको उचित है कि वह उसके प्रश्नोंका ठीक ठीक उत्तर दे। ऐसा न करे कि उत्तरकी जगह उल्टा उसपर विरक्त अथवा क्रोधित हो । क्योंकि उसके पूछे हुए प्रश्नपर विरतता प्रकाश करनेसे अथवा किसी तरहका उत्तर न देनेसे उसकी प्रश्न करनेकी इच्छा धीरे धीरे कम हो जाती है । इसका परिणाम यह होता है कि शिक्षाकी धार फिर बिलकुल ही बंद हो जाती है। इस लिए बालकगण जिस समय जो बात पूछे उन्हें उस समय वह वात समझानेके लिए कभी आनाकानी नहीं करनी चाहिए। (३) बालकको पढने लिखनेके लिए अधिक धमकाना, मारना अथवा उसे पांचवर्षसे पहले पढनेके लिए विद्यालय, पाठशाला आदिमें भेजना अनुचित है। इस अवस्थामें तो माताको चाहिए कि वह अपनी सन्तानको मौखिक शिक्षा दिया करे । इंग्लेण्ड आदि सभ्य देशोंकी भाति वालकोंका विद्यालयों में रहना और उन्हें शिक्षित करनेके लिए वहा भेजना यद्यपि उचित है पर हमारे देशमें जबतक वैसे विद्यालय अथवा वैसी पढानेवाली स्त्रिया नहीं है तबतक बालकोंके लिए घर ही Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) उत्तम शिक्षाका स्थान है। पाठशालाकी वुरी शिक्षाप्रणाली और कठोर शासन प्रणाली लिखने पटनेमें वालकांको इतना उदासीन बना देती है कि फिर जीवनपर्यन्त वह भाव हृदयमें खूब ठस जाता है और उससे वे लिखने पहनेका सुख अनुभव करनेमें असमर्थ हो जाते हैं। विशेप करके माता शिक्षाप्रद छोटी छोटी कथाओंके द्वारा यदि वालकको शिक्षा दिया करे तो वे इतनी हृदयग्राही और कार्यकारी होती है कि हनारों बार पढानेसे भी उतने फलके लामकी सभावना नहीं होती। (१) एकसे अधिक सन्तान हो तो भी माताको उन सबपर समान प्रेम और उनके सुधारके लिए समान प्रयत्न करना चाहिये । जब अपनी सन्तानपर माताका प्रेम कम ज्यादा होता है तब उनके हृदयमें प्रतिहिंसा, द्वेष और पक्षपातका आविर्भाव होता है। भाई बहनके वीचमें पारस्परिक प्रेम नष्ट हो जाता है । सन्तान सुन्दर हो चाहे कुरूप हो, मूर्ख हो चाहे बुद्धिमान हो, उन सबका समान भावसे प्रतिपालन करना चाहिए। ऐसा करनेसे भाई वहनमें प्रेमका अमाव नहीं होता है। होना तो ऐसा चाहिए पर आज कल माताका प्रेम पुत्रीकी अपेक्षा पुत्रपर अधिक देखा जाता है । माताके लिए ऐसे भिन्न भावका होना अत्यन्त निन्दित है और यह भाव पुत्र और पुत्री इन दोनोंके लिए भी अहितका कारण है। (५) जव वालक रोने लगाता है और सोता नहीं है तब उसे मूत, पिशाच, वा सिंह, रीछ आदिका भय दिखाया जाता है पर वालकके लिए इससे बढकर कोई कुप्रथा अनिष्टकारी नहीं है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे बालकपनमें ही मन अत्यन्त संकुचित भयवान और निरुद्यमी हो जाता है। फिर मनोवृत्तियों में स्फूर्ति और विकाश नहीं हो सकता। अन्धकार युक्त स्थानमें जानेसे अथवा किसी भयानक शब्दके सुननसे फिर उनका हृदय कम्पित होने लगता है। विचार करनेसे स्पष्ट जान सकोगे कि ऐसी ऐसी दुष्प्रथा ही हमारे देशकी सन्तानके निर्बल होनेकी प्रधान कारण हैं। रोते हुए बालकको सहसा ऐसा डर दिखानेसे उसे उसवक्त जैसा कष्ट-दुःख-होता है यह बतलाना बहुत कठिन है। यद्यपि उस समय वालक डरसे रोना अवश्य बंद कर देता है पर । उसके वेगको सहसा रोकनेमें उसे असमर्थ होजानेसे फिर उसका हृदय फटने लगता है। वह उस समय आंखे मीचकर अथवा माताके आंचलसे अपना मुँह छिपाकर उसी मूर्ख माता गोदमें छिपनेकी चेष्टा करता है। इस तरहके भयसे ही अधिकांश वालकोंको अच्छी नींद नहीं आती और फिर इसीसे वे उस कची नीदमें स्वप्न देखकर रो उठते हैं। (६) बालकको शान्त करनेके लिए बहुतसी उनकी माताएं उन्हें झूठा विश्वास करा देती हैं । चुप रह ! तुझे मिठाई दूंगी, खिलोना दूंगी, आकाशसे चांद लादूगी । इस तरहकी अनेक सच्ची झूठी बातोंसे उसे वे शान्त करनेकी चेष्टा करती है । माता झूठ नहीं बोलती है, उसमें बहुत शक्ति है, वह इच्छा करते ही चन्द्र, सूर्य, आकाश, पाताल आदि सभी कुछ ला सकती है। पहले पहल वालकके सरल हृदयमें इस ताहका विश्वास दृढ़ हो जाता है। बाद दो चार दिनतक इसी तरह उसे धोखा देनेसे वह फिर माताके कहनेपर विश्वास नहीं करता है। स्वयं भी झूट बोलने, दूसरोंको ठगने और Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) , निराश करनेकी शिक्षा ग्रहण करता है । और जब वह वालोंके साथ - खेलनेके लिए जाता है तब उसे देखोगेतो जान पड़ेगा कि वह अपनी - माताके उस झूठी आशा-लोभ और धोखा देनेका उन वालकोंके साथ i कैसा अभिनय करता है। (७) वालककों भय दिखाकर अथवा मारने आदिके द्वारा उसे अपनी आज्ञामें चलाना मानों उसे आज्ञा उल्लघन करनेकी शिक्षा देना है । संभव है कि बालक दण्डके भयसे अपने सामने कोई बुरा आचरण न करे, परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि आखोकी आड़ होते ही वह बुरे आवरणकी रही सही कमीको भी पूरी कर देता है। जो बालक अपने माता पितादिक द्वारा अधिक ताड़ना किये जाते है उन्हें ही साधारणपर्ने दुष्ट और दुराचरणी कहना चाहिए। वालकोंको तो प्यारके साथ शिक्षा देकर वशीभूत करना चाहिए। जब प्रेमसे बालक वश हो जाते हैं तब सामने वा पीठ पीछे कमी उनके दुराचरण करनेकी संभावना नहीं की जा सकती। ऐसी हालतमें बालक जब कमी दुराचरण भी कर लेता है तब उसके साथ थोडीसी अप्रीति वतला दी जाती है तो वही उसके लिए बड़ा भारी दण्ड हो जाता है । उसवक्त उसके हृदय यह विचार उत्पन्न होता है कि " आज मैंने अन्याय कियावुरा काम किया-इसी लिए माता मुझसे प्यार नहीं करती है और न वोलती ही है । " इस लिए फिर वह निरन्तर सावधान होकर रहते है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) (८) प्रेमके साथ बालकपर शासन करनेको छोड़कर और कोई शासन प्रणाली अच्छी नहीं है। बालकोंपर इसी प्रणालीसे शासन करना चाहिए । कठोर और कर्कश व्यवहार करनेसे अथवा भय दिखाने और मारनेसे उनके मनकी स्फूर्ति नहीं होने पाती। सदा शासनके भयसे वह डरपोक हो जाता है और उसका स्वभाव भी कर्कश और नीच हो जाता है । जिस घरमें बालकोंके हृदयमें स्फूर्ति-चंचलता नहीं है वहां बालक निर्भय चित्त होकर कभी खेल नहीं सकते। उन यमालय समान घरोंमें वालकोंकी मनोवृत्तिया स्फूर्तिवाली और तेजस्विनी होगी यह कभी संभव नहीं । इस लिये उचित है कि हम उन्हें स्फुरित होने दें। . ; अपूर्ण । मनकी मौज । वर्तमान समयमें विचार स्वातव्यकी बड़ी कदर है । इंग्लैंडके तत्त्ववेत्ता जा० स्टु० मिलके कथनानुसार प्रत्येक मनुष्यको अपने विचारोंके प्रगट करनेका अधिकार है । और उनके प्रगट करनेसे मनुष्य सगानको कुछ न कुछ लाभ अवश्य पहुंचता है। मेरे मनमें तरह तरहके विचार उठा करते है पर सूमकी सम्पत्तिकी तरह वे अबतक किसीके उपयोगमें नहीं आते थे-जहाके तहां नष्ट हो जाते थे । पर अब आगे यह न होगा । मिल साहवकी सम्मति से अव मै उदार बनता हूं और अपनी प्रत्येक मौजको सत्यवादीके द्वारा वितरण करनेके लिए मुक्तहस्त होता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) (२) एक बूढे पण्डितनी बडे पके आराधक है । जैन समाजमें सैकडों उलट फेर हो गये-जमाना बदल गया, परन्तु उन्होंने अपना जय एक घडी भरके लिए भी न छोडा । ' छापेका क्षय' 'छोपेका क्षय ' करते करते उनकी उमर गुजर गई। छापेके विरोधी देवता भी बड़े विकट निकले । अपने भक्तकी उन्होंने बड़ी कडी जाच की। जब बूढे वावा अपनी सफर तै करनेके अन करीब पहुंच गये, तव कहीं उनके कानोंपर जूं रेंगी और वरदान देनेके लिए तैयार हुए। इस समय एकाधा नहीं कई देवता उनपर प्रसन्न हो गय है और उनकी एक निष्ठतापर लट्ट है। बूढे वावा जो कहते है, वे उसी वक्त सिरके वल करनेके लिए तैयार है। अभी बावाने कहा कि महाविद्यालयमें छपे हुए जैनग्रन्थ न पढाये जावें चट देवोंने कहा वहुत ठीक । उधर रत्नमाला जैनगजट आदि देव शक्तिया उनकी आज्ञाकारिणी हो ही रही है । अत्र वावाको भरोसा हो गया है कि छापेको बहुत जल्दी जैन समाजसे खदेड़कर बाहर कर देंगे। मैं समझता था कि इस खबरसे छापेके देवता में बड़ी खलबली मचेगी, परन्तु यहा देखता हूं तो कुछ नहीं-सत्र अपने अपने कामोंमें मस्त है। एकसे पूछा तो उसने लापरवाहीसे हँसकर जवाब दिया-यह पचमकाल है । इसमें न पुराने देवता ओंकी चलती है और न उनके भक्तोंकी । जैसे शंख देवता वैसे महाशंख उनके भक्त । कुछ दिन कूदफाद मचाकर आप ही आप ठंडे हो जायगे। ये वेचारे छापेको क्या खदेड़ेंगे ? उनके देवता ओं तककी तो विना छापेकी गति नहीं । तुमने क्या सुना नहीं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) है कि रत्नमालाका नवीन प्रेसमें छपनेका प्रबन्ध हो रहा है ! (३) t "} मेरे एक मित्र कहते थे कि सारी दुनियां में जितने साप्ताहिक पत्र निकलते है, उनमें शायद एक भी ऐसा न हो, जो जैनगजटकी बरादरीपर बिठाया जा सके | मै यह सुनकर जैनगजटके संपादक महाशयको एक पत्र लिखना चाहता था कि "आप हिन्दी न जान कर भी सिर्फ़ उर्दूकी लियाकत से इतना अच्छा पत्रसम्पादन करते हैं । आपकी इस सफलता के लिए मैं बहुत भारी खुशी ज़ाहिर करता हूं । परन्तु इतनेहीमें जैनगजट अंक ९-१० के दर्शन हुए । मैंने कवरपेजपर ही संपादकका लेख पढ़ा कि " यह जैनगजट सर्वगुण संपन्न है । यह समाजहितैषी, अनुभवी, दूरदर्शी धर्मात्माओं द्वारा सञ्चालन किया जाता है । यदि आपको अपना मनुप्यभव सफल करना है यदि आपको अपनी सन्तानको सुशिक्षित बनाकर उससे अपने कुलकी कीर्त्ति चिरस्थायी करनी है........तो जैनगजटको पढ़िये और पढाइए । " बस, मैंने पत्र लिखनेका विचार छोड़ दिया । जब सम्पादक साहबको खुद ही अपनी कामयात्रीका फक्र है, तब मैं नाहक क्यों एक पैसा खर्च करूं । हा, महासभाके दफ्तर में अलबत्तह एक मुत्रारिकवादीका ख़त लिख भेजूंगा । ( 8 ) प्रान्तिकसभा बम्बईकी सब्जेक्टकमेटीमें जब छापेकी चर्चा उठी और दो एक महाशयोंने उसका विरोध किया तत्र कुछ लोगौने कहा कि यदि सभा छापे के खिलाफ है, तो वह जैनमित्र क्यों छपवाती है ? इस पर एक पुराने, अनुभवी और धीर वीर सम्यने Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) उठकर कहा-" भाइयो, आलस्यको छोड़ो और अपनी पुरानी एहपर चलो। जैनमित्रका हायसे लिखवाना क्या बड़ी बात है ? जब छापा न था । तत्र क्या अपने पुरखोंका काम न चलता था । मेरी रायमें जैनामित्र जरूर हायसे निकलना चाहिए । यह सुनकर मुझे उस चूहे की बात याद आगई, जिसने बिल्ली के गलेमें एक घंटी वाघ देनेकी तरकीब बतलाई थी । ( १ ) महारनपुरके लाला जम्बूप्रसादजीने दो पंडितोंको रख छोड़े है । वे स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन कर ढशसे चार बजेतक शास्त्रजी लिखते है । यदि वीचमें पेशाब वगैरेहकी हाजत होती है तो उसे रफा करके फिर स्नान करते हैं, तत्र लिखते है । पाठशाला के विद्यार्थी मी स्नानादिसे शुद्ध होकर एक खाम वक्त में जैन शास्त्र पढ़ते है ! जैनगजटमें यह समाचार पढ़कर मैं बहुत खुश हुआ । मेरी रायमें लाला साहबको इस विषयमें कुछ और तरक्की करना चाहिए। विलायतमे हिन्दू लोगोंके लिए एक तरहके बिस्कुट बनकर आते हैं। उनके वाक्सपर लिखा रहता हैं कि 'उसके बनानेमें मनुष्यके हाथका स्पर्श नहीं हुआ ।' जब आप शुद्धताकी चरम सीमापर पहुँचना चाहते हैं, तत्र अपने लेखकों को ऐसा अभ्यास कराइए, जिससे लिखते समय ग्रन्यसे उनका स्पर्ग भी न हो । क्योंकि आखिर तो वे ग्रन्थ लेखनसे जीविका करनेवाले है-स्नानादिसे कहातक शुद्ध हो सकते है ? विलायती कागज के समान देशी कागज भी बहुत अशुद्ध होते है, इस लिए पवित्रकागजोंका तो आपने इन्तजाम कर ही लिया होगा । न किया हो तो अत्र कर लीजिए और किसी शुद्धा. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायी जैनीको शुद्धकागज बनानेका एक कारखाना खुलवा दीजिए और वचोंको धर्मग्रन्थ पढानेकी झझटमें तो आप पड़िये ही नहीं। शैतान बच्चे कहीं शुद्ध रह सकते है ? जब आप इस तरह सर्व प्रकार शुद्धताका इन्तनाम करलें, तब अपनी लेखनशालाको किसी प्रदर्शनीमें ले जानेका भी उद्योग करनेसे न चूकें। दिगबरजैनके सम्पादकने बड़ी गलती की जो उसने अपने दीपमालिकाके अकमें जैनगजटके धर्मात्माओंका एक भी चित्र प्रकाशित न किया । जैनगजटका लिखना बहुत दुरस्त है। भला ऐसी जबर्दस्त गलतीपर कौन खामोश रह सकता है। जिन सेठों और विद्वानोंकी तारीफ करते करते बड़े बड़े लिक्खाडोंकी कलमें घिसी जाती है और आज जो अपनी सारी शक्तियोंको इस लिए खर्चकर रहे है कि जैनसमानको कहीं वर्तमान समयकी उन्नतिका भूत न लग जावे, उनके चित्र नहीं छापना और दूसरे यहां वहाके यहां तक कि विलायत गये हुए वाओं और भट्टारकों तककी भरती कर देना, यह क्या कोई छोटी मोटी गुश्ताखी है। इसकी सजा उसे जरूर देनी चाहिए और धर्मात्माओंकी मनस्तुष्टि के लिए श्रीमती रत्नमाला या नैनगजटका दीपमालिकाका खास अंक निकालकर उनके ... चित्र प्रकाशित करनेका उद्योग करना चाहिए। मौजी। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) सम्पादकीय विचार | १ – बम्बई में रथोत्सव | - ता. २९ दिसम्बरसे ता. १ जनवरी तक यहा रथोत्सवकी बहुत चहल पहल रही । रथोत्सव वडे आनन्द के साथ समाप्त होगया । लग भग दो हजार वाहरके सज्जन इस महोत्सव में सम्मिलित हुए थे । जैन समाजक प्रायः त्यागी, ब्रह्मचारी, विद्वान, धनिक आदि सभी उपस्थित हुए थे। जैसा समुचित सम्मिलन यहा हुआ था वैसे समागमकी अत्र बहुत कम आशा है । इस उत्सवके सम्बन्धमें वे बहुत धन्यवाद के पात्र है जिन्होंने अपनी धीरतासे काम लिया था । उत्सव के अन्तिम विसर्जन के दिन श्रीयुक्त सेठ गुरुमुखराय सुखानन्दजी की ओर से प्रीतिभोजन हुआ था । उसमें खण्डेलवाल, अग्रवाल, पद्मावतीपुरवार, परवार, लमेचू, हूमड, चतुर्थ, पञ्चम, सेल्वाल आदि सभी जातिके सज्जन सम्मिलत थे । १ - - बम्बई मान्तिकसभाका अधिवेशन और उसके सभापति । इस रथोत्सवपर प्रान्तिकसभा वम्बईका अधिवेशन होना जब निश्चत हो गया तब इस विषयपर विचार चला कि अबकी बार अधिवेशनके सभापति कौन निर्वाचित किये जायँ : रथोत्सवकी प्रबन्धकर्तृसभा के सभासदोंकी रायसे निश्चित किया गया कि अवकी वार अधिवेशनके सभापति लखनउ निवासी श्रीयुक्त बाबू अजितप्रसादजी एम. ए. एल. एल. बी. वकील, निर्वाचित किये जायें । बाबू साहब हमारी समाज के एक प्रतिष्ठित और उदार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित सज्जन हैं। इसमें सन्देह नहीं कि बम्बई समाने आपको सभापति निर्वाचित कर बड़े महत्त्वका काम किया। इस आदर्श कार्यके उपलक्षमें वह अवश्य धन्यवादकी पात्र है। क्या हमारी और और सभाएँ प्रान्तिकसभाके इस महत्त्वके कामका अनुकरण कर नैन समाजको उपकृत करेंगी ? यह बात अच्छी तरह ध्यानमें रखनी चाहिए कि समाजका हित साधन जितना निःस्वार्थ और उदार चरित विद्वान करेंगे उतना औरोंसे होना असंभव है। सभापति साहबका आगमन ता. २५ दिसम्बरको हुआ था। उस समय आपके स्वागतके लिए बम्बईके प्रायः सभी दिगम्बर जैनसमाजके प्रतिष्ठित धनिक सज्जन स्टेशनपर गये थे । वहांपर आपका बड़े उत्साह और हर्पके साथ पुष्पमाला आदिसे अपूर्व संमान किया गया था। इसके बाद बड़े उत्सव पूर्वक बैण्ड बाजेके साथ साथ आप शहरमें लाये गये थे । उस समयकी शोमाका रमणीय दृश्य वास्तवमें दर्शनीय था। ३-सभापतिके व्याख्यानमें हलचल । तारीख २८ दिसम्बरको सभाकी पहली बैठक हुई । श्रीयुक्त प. धन्नालालजीने मङ्गलाचरण कर सभाका काम प्रारंभ किया। वाद श्रीयुक्त सेठ हीराचन्द नेमिचन्दनीके प्रस्ताव करनेपर समापतिका चुनाव हुआ। सभापति साहबने सभाकी कृतज्ञता प्रकाशकर अपनी ओजस्विनी वक्तृता आरम की । कुछ व्याख्यान होजानेके वाद जब आपने जातिभेदके सम्बन्धमें कहा कि-" धार्मिकबन्धुओ ! इस त्यागी मण्डलकी स्थापन्गके साथ २ आपको जातिभेदके अनावश्यक वे शास्त्राज्ञाबाह्य बन्धनको भी शनैः २ ढीला करके सर्वथा तोड़ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) डालना चाहिए । हमारे शास्त्रोंमें वर्णाश्रम धर्मका लेख है, प्रायश्चितपाठोंमें भी वर्गोंका ही कथन है; भगवजिनसेनाचार्यकृत महापुराण भी इसहीकी साक्षी देता है कि आदिब्रह्मा श्रीऋषमदेवने क्षत्रिय वैश्य और शूद्र यह वर्णत्रय स्थापन किया और तत्पश्चात् उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मणवर्ण स्थापन किया । इस प्रकार चार वर्णांका व्यवहार कर्मभूमिकी आदिमें प्रारंभ हुआ था । अग्रवाल खंडेलवाल परवार, ओसवाल, हुमड़, शेतवाल आदि भेदोंका उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । और जैसे खण्डेला ग्रामके क्षत्रिय तथा इतर वर्णीय, जैनधर्म अंगीकार करनेवाले खण्डेलवालोंके नामसे विख्यात हुए, राजा अग्रकी सन्तानवाले अग्रवाल कहलाए; इस ही प्रकार अनेक जातियां उत्पन्न हुई और होती रहती हैं। इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश कुरुवंश आदिवंशोंकी उत्पत्ति भी इसही तरह हुई है। परन्तु जैसी खानापानादि व्यवहारकी संकीर्णता इस समय दिखलाई देती है वैसी पहले कभी नहीं थी। धार्मिक सिद्धान्त और प्रकृतिके अनुसार वर्णाश्रम वन्धनकी आवश्यकता तो प्रतीत होती है; परन्तु जातिभेद तो व्यर्थ उन्नतिबाधक व वात्सल्यघातक जंजीर है। इससे हमारी मूल वर्णाश्रम धर्मशंखलाहीका पता जाता रहा । मुझे कोई कारण नहीं विदित होता कि जैनधर्मावलम्बिनी समान वर्णकी जातियाँ परस्परमें रोटीवेटीका व्यवहार क्यों न करें ! न धर्म ही इसको रोकता है और न कोई लौकिक हित ही इससे होता है। जिन जातियोंमें जैनव अजैन दोनों धर्म प्रचलित हैं, उनमें यदि जैनकी अल्प संख्या होती है तो वे अननसे विवाह आदि व्यवहार करते हुए वहुत दुःख सहते हैं और . उनकी पुत्रियोंको विवश जैनधर्म त्यागना पड़ता है। अने, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोंकी पुत्रियाँ जो उनके घरोंमें आती है वे जैन संस्कारसे शून्य होती हैं, जिससे भावी सन्तान भी जैनत्वशन्य ही रहती हैं। धम्मोन्नतिके प्रेमियो ! जरा विचारो कि इस जातिवन्धनसे धर्मको कितनी हानि पहुँची है। इसे हठ और हानिकारक रूढ़ि न । कहें तो क्या कहा जावे १ अतः यदि आप धम्मोन्नतिके इच्छुक है तो वर्णाश्रम धर्मको दृढ कीजिए और जातिवन्धनको उच्छेद कर जैनधर्मकी वात्सल्य डोरसे जैननातिको बलिष्ठ करनेका उद्योग कीजिए-आदि।" यह अंश हमारे बहुतसे भोले भाइयोंको बुरा जान पड़ा । उन्होंने शास्त्रकी मर्यादा और जातिके हानि लाभकी कुछ परवा न कर एक दम शोर मचा दिया । संभव है, उन्हें अपनी रूढिके सामने इस महत्त्वपूर्ण वातकी कुछ कीमत न जची हो! पर उन्हें इतना विचार तो अवश्य करना चाहिए था कि-समाजका प्रतिष्ठित विद्वान जो बात अपने मुहसे कहेगा वह बहुत ही विचार और अनुभवके साथ । उसे अपने समानकी वर्तमान परिस्थितिपर बड़ा भारी विचार रखना पड़ता है। उसमें भी अपठित और बहुत दिनोंसे अज्ञानके गम जो समाज गिरा हुआ है उसकी स्थितिपर तो और भी अधिक । फिर उसके द्वारा क्या हमें किसी प्रकार धक्का पहुच सकता है ? जो स्वयं समाजकी सेवा करता है और उसके उन्नत करनेकी कोशिश करता है वह क्या उसका अहित भी चाहेगा ? इतनेपर भी यदि उसके विचार हमारे शास्त्रोंसे मिल जावें तव तो हमें वे मानलेने चाहिएं। यदि वे इसपर विचार करते और आदिपुराण सरखेि आपग्रन्थकी मर्यादाका कुछ गौरव करते तो कभी उन्हें इस हलचलके करनेकी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) तकलीफ न उठानी पड़ती । अस्तु । उन्होंने जिस विषयके लिए इतनी हलचल मचाई-आन्दोलन किया-परन्तु आश्चर्य है कि तब भी वे अपनी रूढिका पालन नहीं कर सके उसे सुरक्षित नहीं रख सके। उन्हें जरूरी था कि वे स्वय तो अपनी रूढिका पालन करते? यदि वे जैनियोंमें परस्परके जातिभेदको अच्छा समझते है और उससे अपनी उन्नति समझते है अथवा यों कहलो कि वे इतनी उदारता दिखलाना नहीं चाहते कि जिससे जातिमें प्रेमका संचार हो तो क्या वे मुझे इस वातका उत्तर देकर अनुग्रहीत कर सकते है कि जिस समय सेठ सुखानन्दजीने सत्रका भोजन सत्कार किया था, उस समय हमारे जातिभेदको चाहनेवाले–खण्डेलवाल, अग्रवाल, परवार, पद्मावतीपुरवार, हूमड, चतुर्थ, पञ्चम, सेतवाल, लमेचू आदि जाति वालोंके साथ क्योजीम गये वे समझा तो कि वाबू अजितप्रसादनीने जव यही बात कही तव तो वे उखड़ खडे हुए थे और स्वय अपनी भूलपर उन्हें कुछ विचार नहीं हुआ? क्या यही विचारशीलता है ? पर वास्तवमें बात क्या थी क्यों इतनी हलचल की गई थी। इस विषयका जहातक हमने अनुसन्धान किया है उससे जान पड़ा कि यह कर्त्तव्य-यह हलचल मचाना-हमारे इन भोले भाइयोंकी बुद्धिका नहीं था। उनकी स्टीमके भरनेवाले नो दूसरे ही थे। उन्हींकी कृपासे यह आन्दोलन उठाया गया था। इस लिए इस भूलके करनेवाले वे नहीं कहे जा सकते । तब साहजिक प्रश्न उठेगा कि यह सव कार्रवाई किसकी थी ? उत्तरमें हम अधिक न लिखकर पाठकोंको कुछ इशारा किये देते है । उसपर वे स्वय विचार करें । हमारे कितने जातिभाइयोंको बम्बईप्रान्तिकसभाके Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८) अधिवेशनके होनेकी खबरसे एक प्रकारका भय हो गया था। भय क्यों ? यह एक विषम समस्या है । यद्यपि हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस समस्याका हल करना अपने ऊपर एक बला लेकर अपनेको अपराधी वनाना है, परन्तु तव भी अनुरोध वश कहना पड़ता है। __मथुरामें महासभाका जो अधिवेशन हुआ था, उसे हमारे पाठक भले न होंगे। उसमे मनमानी जो जो कार्रवाइयांकी गई वे सबपर विदित है । उसके नवीन कार्यकर्ताओंने सबसे बड़ी यह भूल की है कि उन्होंने उन लोगोंको, जिन्होंने अपने सुख दुःख, हानि लाभकी कुछ परवा न कर महासभाकी पूर्ण रूपसे निष्काम सेवा की थी, अलग कर दिये है । हम नहीं जानते उनका क्या अपराध था ? कौनसी उन्होंने महासभाको हानि पहुँचाई थी ! जिससे वे सभासे अलग किये गये। किस लिये महासभाने यह अन्याय किया? क्या महासभाके कार्यकर्ता इसका समुचित उत्तर देकर अपने उपरसे इस दोपके हटानेकी कोशिश करेंगे ? देशकी जितनी संस्थाएं है उनमें तो कामके करनेवालोंकी जरूरत रहती है पर महासभा उल्टा काम करनेवालोंको अपनेसे अलग करती है, यह क्यो ? इसके गूढ़ रहस्य पर विचार कर यदि हम यह कहें कि सचमुच महासभा अब समस्त जैनियोंकी महासभा न रही तो कुछ अनुचित न होगा। क्योंकि अब उसे एक नया ही जामा पहाराया गया है । इसके अतिरिक्त नियमावलीका अनियम उलट फेर आदि और भी कितनी वातें मनमानी की गई थीं । संभव था कि महासभाकी इस मनमानी कार्रवाईका इस अधिवेशनमें प्रतिवाद किया जाता ! Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) इसी विचारने उन्हें भयवान बना दिया था । इसका उन्हें पूर्ण खटका था। उसपर भी ऐसे समय में नत्र कि बाबू अजितप्रसादजी सरीखे स्वाधीनचेता उसके सभापति हों । संभव है, पाठक हमारी इस कल्पनाका विश्वास न करें पर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि यह त्रात विल्कुल सत्य है । उन लोगोंके यहां कई लोगोंके पास पत्र आये थे । उनमें उन्होंने लिखा था कि " आपको इस विषयका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए कि हमारे विरुद्ध वहां कुछ कार्रवाई न की जाय, न महासभा के सम्वन्धमें कोई बात उठाई जाय और न उसकी किसी कार्रवाईका प्रतिवाद किया जाय । इसका मार सत्र आपके ऊपर है -आदि । "} वे लोग केवल पत्र लिखकर ही चुप न होगये । होवें क्यों, उन्हें तो इस विपयकी बडी भारी चिन्ता होगई थी न ? इसलिये उन्हें और भी इसकाममें आगे बढ़ना पडा । उन्होंने कुछ आदमियोंको, जो कि अपनी खुशामद करनेवाले थे, अधिवेशनकी हर तरहसे असफलता होनेके लिए यहा भेजे । वे आये और उन्होंने जहांतक अपनेसे हो सका अधिवेशनकी असफलता के लिये प्रयत्न किया | भोले लोगोंको भी बुरी सुनाकर उन्हें अपनी ओर शामिल किये । सचमुच जिन लोगोकों संसारकी प्रगतिका कुछभी परिज्ञान नहीं है, जिन्हें उन्नति और अवनति एक सरीखी जान पड़ती है, अपनी भलाई के सिवा जिन्हें कभी यह ख्याल नहीं होता कि हमारी जातिकी आज कैसी भयानक स्थिति होगई है ? उनका ऐसे कार्योंमें सहायता देना कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है । इसका खया तो उन्हें हो सकता है जो जातिकी अवनतिको अपनी अवनति - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उन्नतिको अपनी उन्नति समझते हैं । यही कारण है कि उनका चक्र हमारे भोले भाईयोंपर चल गया। इसका जो परिणाम हुआ उसका हम पहले उल्लेख कर आये है । सव कुछ हुआ । अधिवशनकी असफलताके लिए कोई बात उठा न रक्खी गई। पर तब भी हमारी समझके अनुसार वे कुछ भी सफलता प्राप्त नहीं कर सके। हां उनके इस असामयिक अविचारसे इतना लाम जलर हुआ कि काम करनेवाले सज्जनोंमें एक नवीन शक्तिने अवतार ले लिया। पाठक थोड़े दिनों बाद जान सकेंगे कि यह शक्ति कितना काम करेगी? ४-कायरता। हमें विश्वास था कि वम्बईसमाके उत्साही कार्यकर्ता अपना कार्य पूर्ण उत्साहके साथ करेंगे । उसमें किसी तरहकी कमी न आने देंगे । पर ता. २९ की मैनेजिंगकमेटीकी बैठकमें उनके उत्साहका हमें पूर्ण परिचय मिल गया । कुछ ही विरुद्ध पुरुपोंका उनपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे उस समय साधारण प्रस्तावोंके अतिरिक्त कुछ भी महत्त्वके प्रस्ताव पास नहीं करने पाये । हम नहीं जानते कि जातीय काम इतनी डरपोकतासे किये जाते है । वे लोग बड़ी भूल करते हैं जो सामाजिक कामोंको अपमानके भयसे विरोधी लोगोंकी रुचिके अनुसार करते है। उन्हें अपने पूर्व पुरु- . के धैर्य और सहनशीलताका कुछ भी ज्ञान नहीं है। वे नहीं निते कि जातीय कामके लिए उन्होंने अपने जीवनको भी कुछ नहीं गिना था। फिर जरासे अपमानसे हममें इतनी कायरता, इतनी असामर्थ्य क्यों ! सच मुच उनकी यह भीरुता देखकर आश्चर्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) हुए बिना नहीं रहता । जैनसमाज अभी अज्ञानके गड्ढे में बहुत गिरा हुआ है। उससे ऊद्धार करनेमें बडी कठिनाइया सहनी होंगीं । रूढ़ि के गुलामोंके विरुद्ध आन्दोलन करना पडेगा । उनकी गालिया सुननी पडेंगीं । तिरस्कार सहना होगा । तब कहीं आप अपना अभिष्ट लाभ कर सकेंगे। यदि आपमें यह शक्ति है, और सच्चे हृदयसे आप समाजका उद्धार करना चाहते है तो इस भीरुताको जलाजलि दे डालिए । मानापमानको पास तक फटकने न ढीजिए । हम विश्वासके साथ कहते है कि आप उस हालत में बहुत कुछ समाजका हित कर सकेंगे । और यदि इतनी सहनशीलता - 1 अकायरता - नहीं है तो घरमें बैठ जाइये । कायरोंसे दूसरोंका हित नहीं हो सकता । देशका तथा जातिका कल्याण उसी महात्माके द्वारा होगा जो अपने जीवनकी कुछ परवा न कर लोकहितमें लगेगा । भारतवर्षका इतिहास ऐसे वीरोंसे भरा हुआ पडा है । हमें भी उन्हीं महात्माओंसे आत्मसमर्पण करना सीखना चाहिए । ५ - नवीन शक्तिका अवतार । यह ब'त स्वाभाविक है कि उन्नति संसार में जत्र पुरानी शक्तियां ढीली हो जाती है और उनमें काम करनेकी हिम्मत नहीं रहती । अथवा वे कायरतासे अपनेको कार्यक्षेत्रमें आगे नहीं बढा सकती तत्र नियमसे नवीन शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । जैन समाज के प्रधान नेता भगवान् समन्तभद्र और अकलक आदि निष्काम योगियोंका ऐसे ही समयमें अवतार हुआ था । उस समय उनके द्वारा जैसी जैनधर्मकी प्रगति हुई थी वह किसीपर अविदित नहीं है । ठीक वही समय आज हमारे लिए फिर आ उपस्थित हुआ है। 1 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) हमारे खूनकी तेजी बहुत शीतल हो गई है। यहां तक कि हम अपने आप तकको भूल गये है और धीरे धीरे नीचेकी ओर चले जा रहे हैं । अज्ञानकी असीम राज्यसत्ताने हमें परक्श और अपना गुलाम बना लिया है । इस हालतसे हमारा उद्धार होनेके लिए अब नवीन शक्तिके अवतारकी जररूत है। क्योंकि जिन पुरानी शक्तियों के ऊपर हमें भरोसा था-अपने उद्धारका पूर्ण विश्वास था-उनमें कुछ तो कछुवेकी तरह मन्द मन्द चलने में ही अपना भला समझती है और कुछ ऐसी है जिनमें स्वार्थियों, मायावियों, समाजके शत्रुओंकी ही अधिक भरती होगई है। इससे अब उनपर विश्वास रखना-उनसे भलाईकी आशा करना-निष्फल जान पड़ता है । यद्यपि ऐसी महाशक्तिके उद्भव होनेमें अभी बहुत कुछ विलम्ब है, परन्तु फिर भी यह लिखते वडी खुशी होती है कि बहुतसे विद्वान् और समाजकी निष्काम सेवा करनेवालोंकी एक मण्डली सगटित होगई है । उसका नाम दिगम्बरजैनमहामण्डल है। इसका उद्देश्य देश विदेशमें जैनधर्मका प्रचार करना है। इसके द्वारा एक साप्ताहिक पत्रका भी जन्म होना निश्चित हो चुका है । पत्रका नाम जनभानु होगा । इसका पालन-सम्पादन-हमारी जातिके अपूर्व विद्वद्रत्न स्या० वा० न्यायवाचस्पति १० गोपालदासजीके द्वारा होगा। परमात्मासे इस मण्डलके कर्मवार होनेकी प्रार्थना करते है। इस नवीन शक्तिके द्वारा बहुत कुछ समाजसुधारकी आशा की जाती है। ६-आत्मपतन । मनुष्य चाहे मूर्ख हो अथवा पढ़ा लिखा, वह स्वार्थसे अपनेको कहा तक गिरा सकता है, कहां तक लोगोंकी दृष्टिमें घृणास्पद वना परमात्मासे इस बारा बहुत कुछ समपतन । वह स्वार्थसे बना नकीन शाम इस मण्डलके वाचस्पति ५० गोपालदाहमारी जातिके अपूर्व Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) लेता है, इसका बहुत कुछ प्रतिभास वम्बईसमाके अधिवेशनमें हुआ है। पहले विश्वास तो यह था कि मनुष्य चाहे कितना ही स्वार्थी क्यों न हो तब भी वह अपने स्वार्थके लिए, स्वार्थ भी केवल इतना ही कि हमारे अन्नदाता हमसे खुश रहें, बड़े भारी जन समुदायका अहित न करेगा। परंतु अब वह विश्वास नहीं रहा । उसके स्थानमें यह श्रद्धा जम गई कि पैसेका गुलाम, चाहे वह पढ़ा लिखा ही क्यों न हो, अधमसे अधम काम भी कर सकता है । अपनी तुच्छातितुच्छ मलिन वासनाके लिए अपनी जातिका, अपने देशका अकल्याण कर सकता है। उनकी उन्नतिके कारणोंको धूलमें मिलानेकी जी जानसे चेष्टा करनेके लिए उतारु हो जाता है । ऐसे मनुष्योंको यदि हम समाज और देशके दुश्मन कहें तो कुछ अनुचित नहीं जान पड़ता। __जबसे अभागे जैन समाजमें दस्मे और बीसोंके अगडेने अवतार लिया है तबहीसे कुछ लोगोंने उमे जातीय अगडेका जामा पहराकर बहुत कुछ आन्दोलन करना आरभ किया है । इसका परिणाम समानके लिए कैसा हुआ इससे सब परिचित है । महा सभाने, जो भारत वर्षके सब जैनियोंके हितके लिए स्थापित हुई थी, प्रादेशिक रूप धारण कर लिया है। और अब वह कुछ गिनतीके लोगोंकी समा गिनी जाने लगी है । कई धार्मिक संस्थाए जो समाजमें विद्यावृद्धिके लिए स्थापित है और अपनी शक्तिके माफिक समाज सेवा कर रही है वे कुछ अनुदार हृढयी पुरुपाको काटेकी तरह चुभ रही है । उनकी अभिवृद्धि उन्हें सुहाती नहीं है । क्यों ? यह बतलाना अपनेको अपराधी बनाकर गालिया सुननेका पात्र बनाना है । सामाजिक पत्र, जिनका उद्देश्य-कर्त्तव्य Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) समाज सुधार है, वे आज किस खुत्रीमे-कैसे पाण्डित्यके साथ-सम्पादित किए जाते हैं यह बतलानेको हम लाचार है । समझदार पाठक स्वयं समझते हैं । हमारे अभागे समाजमें पत्र सम्पादनका यही मतलब समझा गया है कि उनके कलेवर किसी तरह काले हो जाने चाहिए। फिर चाहे उनमें अच्छे अच्छे लेख न हो, उनसे किसीका हित न होता हो, समानमें उलटा उनसे बुराई होती हो, भले ही उनके द्वारा अपनी अधम मनोवृत्तिया खुश करनेके लिए दूसरेकी निन्दा की जाती हो, दूसरोंको मनमानी गालियां दी जाती हो, उनसे कुछ भी हानि नहीं समझी जाती। हमें प्रमंग पाकर लिखना पड़ता है कि हमारी जातिके एक प्रतिष्ठित नेताने एक मान्य पत्रके संपादकको दम वातकी चेतावनी की थी कि आप अमुक पत्रके साथ ही अपने लड़ाई अगड़ेका सम्बन्ध रक्से हम अमुक पत्रको इम विषयसे निष्कलक रखना चाहते है । परन्तु यह लिखना उनका एक समझदारकी आखों में धूल डालने के मानिन्द था और बिल्कुल वनावटी था। यदि यह बात उन्होंने शुद्ध हृदयस लिखी होती तो क्या वे अपनेको उसी कलकसे न बचात ? क्या वे स्वयं घृणित वासनाके दास बनकर अपनी लेखनीका दुरुपयोग करने लगते ? छिः समाजके हितपीपनेकी डींग माग्नेवाले इतने बड़े नेताके लिए यह बड़ी भारी लग्नाकी बात है। सच है पर उपदेश कुशल बहुतेरे दूसराके दोष सत्र दिखा सकते है पर अपने दोषोंपर किसीकी दृष्टि नहीं पड़ती। परन्तु यह मनुष्यता नहीं है। __ इस समय हमारी जातिमें जितनी बुराइयां पैदा हो रही है, के सत्र स्वार्थकी वासनासे मलीन और संकीर्ण हृदयी पुरुषोंकी कृपाका) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल है । वे अपने व्यक्ति गत द्वेषको भी समानकी छातीपर पटक कर उसके सर्व नाशके लिए कोई बात उठा नहीं रखते और फिर उस अकर्त्तव्यको वे सफलता समझते है । पर यह सफलता ऐसी ही है कि बुराई करके उसे अज्ञानतासे भलाई समझना । बुद्धिमान् इस सफलताका आदर नहीं करते । किन्तु उसे घृणाकी दृष्टिसे देखते है । हा इस हलचलसे इतना तो अवश्य हुआ कि ऐसे वडे समारोहमें बम्बईसभाके लिए कुछ द्रव्य संचित हो जाता, अथवा वाहरकी संस्थाओंके लिए भी कुछ सहायता मिल जाती, वह इन जासूओंकी समाजपर सुदृष्टि रहनेसे न होने पाई । धार्मिक कार्योंमें दान देकर उन्हें सहायता पहुचा कर-जो हमारे भाई पुण्य सम्पादन करते उसे इन श्रीचरणोंने अपनी वीरतासे खूब हगाम मचाकर सम्पादन न करने दिया और उस श्रेयके बदलेमें एक नवीन श्रेय स्वय सम्पादन कर लिया । मनुष्य स्वार्थक पाशमें बद्ध होकर कितना अन्याय कर सकता है, कहा तक अपने आत्माको गिरा सकता है यह हमने भी खूब जान लिया । और साथ ही यह विश्वास कर लिया कि स्वार्थसे-तुच्छातितुच्छ स्वार्थसे-अपने अनन्त शक्तिशाली आत्माको नीचेसे नीचे गिराने वाले पैसेके गुलाम और सकीर्ण हृदयी पुरुपोंकी हमारी जातिमें कमी नहीं है । पैसे ! तू धन्य । तेरे गुलाम सब कुछ करनेको तैयार रहते है। इसी लिए तुझे धन्यवाद देना पड़ता है। अधिक क्या मूर्ख तो तेरी गुलामी करते ही है, परन्तु पढ़े लिखे, बुराई और भलाईको जानने वाले विद्वान् भी तेरे अनन्य हास होते दीख पड़ते है । तेरी कृपासे जो कुछ हो वह थोड़ा है । अस्तु । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ७-श्रीमन्धरस्वामीके नाम खुली चिड़ियां। हमने इस अङ्कसे उक्त शीर्षककी चिट्टियां प्रकाशित करना आरंभ की है । इन चिट्टियोंके लेखक श्रीयुक्त वाड़ीलाल मोतीलाल शाह हैं । आप जैनसमाजमें एक स्वतंत्र और उदारचरित लेखक है । आपके विषयमें हम अधिक क्या कहें, निन्होंने आपके द्वारा सम्पादित जैनसमाचार और जैनहितेच्छु पत्र पढ़े हैं, वे आपकी योग्यता और विद्वत्ताका अनुमान स्वयं कर सकते है। इसके अतिरिक्त ये चिट्टिया भी आपकी प्रतिभाशालिनी बुद्धिका परिचय करा सकती है। इन चिठ्ठियोंको लिखकर आपने जैनसमाजको बहुत कुछ सचेत किया है। इनमें जैनसमानके अधापतित अवस्थाका चित्र बड़ी मार्मिकतासे अङ्कित किया गया है। पढनेसे हृदयपर एक गहरी चोंट लगती है। प्रकाशित चिट्ठीको पढकर पाठक स्वय अनुभव कर सकेंगे । जातिकी दशाका ज्ञान करानेके लिए हम क्रमसे इन्हें प्रकाशित करेंगे। हमारी जातिकी इस समय बडी बुरी हालत हो रही है। हमें आशा है कि जातिके शभचिन्तक अपनी पतित अवस्थापर अवश्य ध्यान देकर उसके उद्धारका उपाय करेंगे। - हमें यह जानकर वहा दुःख हुआ कि उक्त महानुभावने समाज सेवासे अपना हाथ खींच लिया है। इसमें सन्देह नहीं कि इसका कुछ कारण अवश्य है। पर हम यह कहना भी अनुचित नहीं समझते कि जातिको आप सरीखे नररत्नोंकी वडा भारी जरूरत है। आप सरीखे स्वाधीनचेताहीके द्वारा जातिका भविष्य अच्छा बन सकेगा । हम आशा करते है कि आप हमारी प्रार्थनापर ध्यान देंगे । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) ८-क्या जैनसमाजका सुधार होगा? एक ओर तो इसके शुभचिन्तकोंका यह प्रयत्न चल रहा है कि जैनसमाज एकताके पवित्र बन्धनमें वधकर अपने लिए उन्नतिका मार्ग सरल करे और दूसरी और कुछ कुलकलंक इसे और भी पतित करना चाहते है। वे दिनपर दिन इसके उन्नतिके मार्गको विषम बना रहे है। जहा देखो वहां आपसमें-भाई भाईमें-साधारण साधारण वातोंके लिए ईपी और द्वेषकी आग्नेि भड़काना चाहते है। एक स्थान ऐसा है जहा मिलकर और शान्तिके साथ काम किया जाय तो उससे किसीकी हानि नहीं होती और न द्रव्य और समयका दुरुपयोग होता है । पर न जाने यह शान्ति उन्हें क्यों अच्छी नहीं लगती है। क्यों उन्हें एक एक दानेके लिए ठोकरें खाते फिरते अपने भाइयोंपर दया न आकर अदालतोंमे लाखों और करोंडों रुपयोंपर पानी फेरना अच्छा जान पड़ता है? क्यों वे अपने ऋपियोंके " स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनायोपैतकैतवा । प्रतिपत्तियथायोग्य वात्सल्यमाभलप्यते ।। अपने भाइयोंके साथ छल-कपट-रहित पवित्र भावोंसे प्रेम करना चाहिए, इन पवित्र वचनोंको भूल गये क्यों उन्हें अपनी इस भूलपर खेद नहीं होता पाठक ! आपने पढ़ा होगा कि सम्मेदशिखरपर्वतपर अपना हक्क सिद्ध करनेके लिए हमारे कुछ श्वेताम्बरी भाइयोंने दिगम्बरियोंपर मुकद्दमा चलाया है । हमें इसमें पूर्ण संदेह है कि वह पर्वत केवल श्वेताम्बरियों अथवा केवलं दिगम्बरियोंके हाथमें आकर उसपर एकका मौरुसी हक्क Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८) हो जाय ? पर हा इतना अवश्य होगा कि दोनों ओरका बहुतसा रुपया तो बरवाद हो चुका है और अभी बहुत होना है । इसीके लिए यह मुकद्दमें वाजीका नवीन सूत्रपात हुआ है। देखते है, हमारे श्वेताम्बर भाई लाखोंपर पानी फेरकर कितनी सफलता प्राप्त करते हैं ! क्या ही अच्छा होता यदि वे अपने दुखी भाइयोंके लिए इस धनका सदुपयोग करते ' आज जैनसमाज दिनपर दिन अज्ञानके गड्ढे में गिरता चला जा रहा है, उसका उद्धार करते 1 यदि हम थोड़ी देरके लिए इस असत्य ही कल्पनाको सत्य समझलें कि पर्वत श्वेताम्बरियोंको मिल गया तो क्या उससे सब श्वेताम्बरी मोक्ष चले जावेंगे और फिर दिगम्बरियों को कभी मोक्ष मिलेगा ही नहीं ? यह कितने खेद की बात है कि एक ओर तो जैनधर्मकी इतनी उदारता कि वह संसार भरको अपने उदरमें रखने की शक्ति रखता है ओर दूसरी ओर उसके धारकोमें इतनी अनुदारता - इतनी संकीर्णता कि वे सर्व मान्य स्थानको केवल अपना ही आराध्य बनाना चाहते हैं ? यह तो वही हुआ कि किसी जैनधर्म स्वीकार करनेवाले अन्यमतीको यह कहना कि जैनधर्मक ग्रहण करनेका तुम्हें कुछ अधिकार नहीं है । वह हमारी मौरुसी सम्पत्ति है । पर यह समझ भूलभरी है । और इसीसे हमारी जातिका सर्वनाश हुआ है । अत्र हमें इन झगडों का समाजसे काला मुहॅ करना चाहिए। हमारे पास पैसा बहुत है तो उसे इसतरह व्यर्थ नष्ट न कर उसका हमें सदुपयोग करना चाहिए । जरा जाति की हालत देखने के लिए आखें खोलो, तर जान पडेगा कि हम इसी पिशाचिनी फूटसे भीतर ही भीतर कैसे चुने जा रहे है । जैनधर्म शान्तिमय धर्म है। पर आश्चर्य है कि हम उस शान्तिको-प्यारी शान्तिको - भूले Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) जा रहे है ? वह दिन जैनियोंके लिये कितना उत्तम होता जिस दिन उनका बन इन मुकद्दमां के द्वारा आमिपभोजियों के पेटमें न पड़करउससे हिंसाका प्रचार न होकर जातिके लिए व्यय होता । जातिम विद्यामंदिर और जिनवाणीभवन आदिकी स्थापना होती और उनके द्वारा जानिमें नई शक्ति पैदा होती ? यही सब देखकर प्रश्न उठता है कि क्या जैनममाजका उद्धार होगा ? स्त्रीशिक्षा | यदि हम यह कहें कि देश और जातिकी उन्नति स्त्रीशिक्षा निर्भर है तो कुछ अनुचित न कहा जा सकेगा । त्रीडिलाका किनन महत है यह शब्दोंक द्वारा समझाना कठिन है । ममारके प्रायसभी प्रसिद्ध विद्वानान यह बात कण्टसे स्वीकार की है कि जिम दंगम, जिम जातिम और निम गृहमें स्त्रीशिक्षाका प्रचार नहीं है वह देश, वह नति और यह गृह कभी उन्नत नहीं हो सकते। भारतका जो आज सीमान्त अव पात हो गया है उसका प्रधान कारण स्त्रीशिक्षाका भी अभाव है । और जबतक इसका यथेष्ट प्रचार न होगा तबतक पतित भारत उन्नत होगा यह संभव नहीं । इमे कोर्ट अस्वीकार नहीं कर सकता कि मूर्ख के द्वारा समाज या देशको किसी तरहका भी लाभ नहीं पहुच सकता । और तो क्या जब वह सन्तानपालन, गृह प्रत्रन्व आदि जरूरी कामोंका मी पालन अच्छी तरह नहीं कर सकती तब उसके द्वारा किसी भारी महत्वके कामका सम्पादन किया जाना कैसे संभव माना जा सकता है ? उसे स्वयं इस बानका ज्ञान नहीं है कि मेरा कर्तव्य क्या है ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे किस मार्गपर चलनेसे लाभ होगा ? तब वह क्या अपना, क्या अपनी सतानका और क्या अपने घरका सुधार कर सकेगी? यह कौन नहीं जानता की स्त्रीशिक्षाके न होनेसे भारतकी जातियां दिनपर दिन कैसी कैसी भयंकर कुरीतियोंका घर बनी जा रही हैं। क्या यह कभी सभव था कि जहांकी भूमिको सीता, मैनासुन्दरी, अञ्जना, द्रौपदी, मनोरमा आदि देवियोंने भूपित की थी-अपने चरणोंसे पवित्र की थी. . वहाकी स्त्रिया अब ऐसी उत्पन्न होंगी कि वे स्वार्थके वश हो अपनी प्यारी पुत्रियोंको बूढे, मूर्ख, कुरूप आदिके गले वाधकर उनके सुखमार्गमे काटे बनेगी ? पर यह सब इसी एक स्त्रीशिक्षाके न होनेका प्रभाव। आरै इसीसे उन्हें अपना हानि लाभ नहीं सूझ पड़ता । इस लिए क्यों यह जरूरी नहीं माना जाय कि स्त्रीशिक्षाकी बड़ी जरूरत है और बहुत बड़ी जरूरत है । स्त्री पतिकी अगिनी मानी जाती है, पर यह याद रहे कि अनपढ़ी स्त्री अर्धाङ्गिनी कभी नहीं हो सकती। क्योंकि उसके द्वारा कीसी तरहकी मदद पतिको नहीं मिलती है। विना विद्याके स्त्री सिवाग रोटी बनाने और पानी भरनेके किसी कामकी नहीं होती। उसे यदि इनके सिवा कुछ काम भी सूझता है तो वह दूसरोंकी निंदा करनेका । चार निठल्ली औरतें शामिल बैठकर इधर उधरके निंदा करना अपना काम समझती हैं और जो इस कामको नियादह खूबीसे करती है वही इनमें चौधरानी समझी जाती है। ये मदिरमें दर्शन करने और शास्त्र सुनने जाती हैं परन्तु चित्त निन्दामय होनेके कारण न हृदयसे वे दर्शन कर सकती है और न शास्त्रके उपदेश को ही हृदयमें जमा सकती है । ऐसी सूरतमें जैसा कुछ पुन्यफल मिलना चाहिए वह नहीं मिलता, क्या इन बातोंके सुनने पर भी यह संदेह Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह जाता है कि स्त्रीशिक्षा न होनी चाहिए। और और देशोंकी स्त्रियां कितने उचे दरजेपर पहुच गई हैं कि जिन्हें देखकर प्रत्येक स्त्रीशिक्षाका प्रेमी प्रसन्न हो सकता है। उनके लिखे हुए आज हजारों अच्छे अच्छे ग्रंय है जिन्हें देख कर अच्छे अच्छे विद्वान् आश्चर्य प्रगट करते हैं। मारतकी नारियां भी अपनेमें वही शक्ति रखती है, परन्तु बुरा हो इस अविद्याका जिसने उनकी शक्तिको ढक दिया है । प्रत्येक देशहितैपीको सबसे पहले स्त्रीशिक्षापर अच्छी तरह ध्यान देना चाहिए । सब मुल्कजग गये हैं। जापान स्वर्गभूमिके समान सुख भोग रहा है । चीनने भी अपनी पिनक छोड़दी है। पर भारत-जगद्गुरुभारत-ही आज सबसे पीछे पड़ा हुआ है। क्यों ? केवल शिक्षाके न रहने से । प्यारो ! अत्र इस वातकी आवश्यक्ता है कि स्त्रीशिक्षाका खूब प्रचार किया जाय। स्त्रियोंको शिता मिलनेसे कितना जल्दी सुधार होता है इस वातको वे लोग बहुत अच्छी तरहसे नान सकेंगे जिन्होंकी निगाह चीनको देखती रही है । आजसे दश वर्ष पहले चीनमें न समाजकी तरफसे और न सरकारकी ही तरफसे वियोंके लिये स्कूल या कालेज था। पर इस दश वर्षके अर्सेमें उन्होंके स्त्रीशिक्षाके प्रचारसे आज चीनके केवल एक प्रातमें ७१२ पाठशाला और कई एक कालेज स्थापित हैं। उनमे स्त्रियोंको इतिहास, साहित्य, गणित, सन्तानपालन, कलाकौशल आदि सभी विषयोंकी शिक्षा दी जाती है । उसीका आज यह फल दीख पड़ता है कि वहां की स्त्रियां संसारमें वह काम कर रहीं Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जो आश्चर्यमें डुबोये देता है। न जाने ऐसा पवित्र दिन भारतके लिए कब आवेगा जब भारतकी स्त्रियां भी अपने कामसे संसारको मुग्ध करने लगेंगी ! __ भारतके प्यारे पुत्रो ! अब तो अपने देशकी परिस्थितिपर ध्यान दो। वह बहुत दिनोंसे गिरता ही चला जा रहा है । सबसे पहले उसके लिए तुम्हारा कर्तव्य है कि जैसे उसकी प्यारी पुत्रियां पढ़ लिखकर उसकी सेवा करनेके लिए तैयार होने लगें, वैसा ही तुम काम करो। श्रीशिक्षाका प्रेमीमाणिकचन्द सेठी झालरापाटन । - पुस्तक-समालोचन। धर्मप्रश्नोत्तर-मूलग्रन्थ सकलकीर्ति मट्टारकका बनाया हुआ है। हिन्दी पं. लालारामजीने की है । पं. पन्नालालनी वाकलीवालके द्वारा प्रकाशित किया गया है। कीमत दोनों खण्डकी २) है। मिलनेका पता पं. पन्नालालनी वाकलीवाल ठि. मैदाग्नि नैनमन्दिर बनारस सिटी। __ सारे ग्रन्थमें प्रश्नोत्तरके द्वारा धार्मिक विषय बड़ी खूबीसे सममाया गया है । समझानेकी प्रणाली सरल है। हर एक विषय बड़ी जल्दी समझमें आ सकता है। अन्य नैनियोंके बहुत कामका है। अच्छा होता यदि प्रकाशक पंडितजी भाषाके साथ साथ मूलप्रन्या कर्ताकी सरल संस्कृत भी लगा देते । अन्य मोटे कागजपर सुन्दरताके साथ छपा है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) दिगम्बर जैन —सूरतले इस नामका गुजराती भाषामै कोई पांच वर्ष से एक पत्र निकलता है । उसके सम्पादक श्रीयुक्त मूलचन्द किसनाम कापड़िया हैं । वार्षिक मूल्य उपहारके ग्रन्थ सहित १]) हैं । छटे वर्ष के आरंभ में कापडियाजीने इसका खास अङ्क निकाला । वह हमारे सामने उपस्थित है। उपयोगी लेखोंके अतिरिक्त त्यागी, मुनि, विद्वान, और सद्गृहस्योंके का मग ६० चित्र भो दिये गये हैं । अङ्ककी सुन्दरता देखते ही बनती है । दिगम्बर जैन समाजमें इस प्राथमिक और नवीन परिश्रमके लिए हम कापड़ियाजीको बधाई देते हैं । छ वर्षके उपहारका पहला ग्रन्थ मनोरमा है । यह अन्य शीलकथाके आधारपर गुजराती मापामें लिखा हुआ है । जिसे हम अत्रला कहते हैं वह अपने शीलकी किस वीरताके साथ रक्षा करती है यही इसमें बताया गया है । उपहारका दूसरा ग्रन्थ हनूमानचरित्र है । यह हिन्दी भाषा में पद्मपुराणकी एक कथाके आधारपर लिखा गया है । इसके लेखक खण्डवा निवासी सुखचन्द पद्मसाह हैं | इसकी हिन्दी बहुत कुछ परिमार्जित होना मांगती है । उपहारके दोनों ग्रन्थ पृथक भी छह यह आनमें सूरत चन्दावाड़ीके पतेपर मिल सकते हैं। सर्वादर्शकुण्डलीसागर - लेखक और प्रकाशक बालानी गोविन्द हर्डीकर देवज्ञ हैं। मिलनेका पता - पी. एम. आगवेकर महेश्वरीमहाल नियर कांचमन्दिर कानपुर | कीमत १) रु। यह फलित ज्योतिषका अन्य है । इसमें सन्देह नहीं कि लेखक महाशयने इस Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ジ ( ८४ ) पर मड़ा परिश्रम किया है । पर खेद है कि इस विषयमें हमारा अनधिकार होनेसे हम इसके गुण दोषोंकी विवेचना करनेमें असमर्थ हैं। हां इतना कहना अच्छा समझते हैं कि फलितज्योतिष के अनुरागी इससे बहुत लाभ उठा सकेंगे। हमें यहांपर अम्युदयमें प्रकाशित एक पुराने विज्ञापनकी स्मृति हो उठी है । यदि हमारे फलितसारसंग्रहके विद्वान् लेखक महाशय उसके सम्बन्धर्मे कुछ प्रयत्न करते तो जनसाधारणका बड़ा उपकार होता । न जाने क्यों आपका ध्यान उधर नहीं गया ! संभव है वह विज्ञापन आपके अवलोकनमें न आया हो। हम फिर भी उसकी ओर पंडितनीका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं । पुस्तक साधारणतः अच्छी छप है। पर कीमत अधिक जान पड़ती है । विद्रत्नमाला - लेखक श्रीयुक्त नाथूरामजी प्रेमी । प्रकाशक जनमित्र कार्यालय । यह पुस्तक अत्रकी वर्ष जैनमित्रके उपहारमें दीगई है । इसका विषय ऐतिहासिक है । इसमें जिनसेन, गुणभद्र, आशावर, अमितगति, वादिराज, मल्लिषेण और समन्तभद्राचार्य इन सात माहात्माओंकी गवेषणापूर्वक जीवनियां लिखी गई है। इसके पढ़नेसे लेखककी ऐतिहासज्ञताका पूर्ण परिचय मिलता है। लेखक महाशयने इस पुस्तकका संकलन कर गड्ढे में गिरे हुए मैन साहित्यका बड़ा उपकार किया है । जैनियोंके अतिरिक्त जन साधारण भी इसके द्वारा जैन साहित्यकी बहुत कुछ बातें जान सकते हैं । पुस्तककी छपाई आदि सुन्दर है । दश आने खर्च करने से पृथक भी मिल सकती है । पत्र, बम्बई ४ हीराबागके पतेपर लिखना चाहिए । " • 1 3 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५) अनुभवानन्द-लेखक श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी ! प्रशाक जनमित्र कार्याच्य । यह नैनमित्रके उपहारकी दूसरी पुस्तक है । विषय नामहीमे स्पष्ट है । पुस्तक अध्यात्मप्रेमियोंने वही कामकी है । वे इसे एक वक्त लवन्य परें । यह हमारा उनसे अनुरोध है। लिखितमात्राये-जैनियों और आर्यसमानियों में जो लेखिक सान्नार्य चल रहा था उसीका इस पुस्तकमें संग्रह किया गया है। किसकर पत प्रबट और किमका निर्बल है इस विषयमें हम कुट न लिख कर इसक्न मार विारगीलंक पर छोड़ते हैं। पुस्तक की कीमत दो आना है। मिटनका पता वा. चन्द्रलेन मैन वैद्य इटावा सिट। पष्टवार्षिक विवरण-मारतवर्षीय ननशिनाप्रचारकसमितिकी छठे वर्षकी रिपोर्ट । इसके दखनसे समितिक कार्यकर्तामोड असीम साहस परिचय मिटता है । जैनियोंकी सत्र संस्थाऑमें हमारे विश्वासक अनुमार यही एक उत्तम संस्था है । यह इसीके साहसका काम है जो पास एक पैमा न होनेपर मी वार्षिक वनट १९०००, का पास करती है । नानिकी सच्ची और निकामसेवा करना इसको कहते हैं। क्या हमारी बड़ी बड़ी संस्थाएँ इस आदर्श संस्थाके द्वारा कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगी ! सप्तमवीय रिपार्ट-दिगम्बर जैनप्रान्तिकसमामालवेका सात वर्षका संक्षिप्त हालाइसके पढ़नसे जान पड़ा कि समाने सात वर्षों में कोई मारी महत्वता काम नहीं किया । हां केवट उपदेशक फण्डका काम और और संस्थानी असेना अच्छा चला। पर अब उसमें मी विन आता नान पड़ता है। क्योंकि उपदेशक अण्डमें जितना Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) द्रन्य था यह खर्च हो चुका। अब कुछ थोडासा बाकी है । संभव है उसके द्वारा चार छह महीने और काम चल सके। हम नहीं मानते कि जिस संस्थामें बड़े बड़े धनिक शामिल है, उसकी यह हालत क्यों ? जान पड़ता है उसके मालिक ऐसे नातीय सुधारके कामोको पसन्द नहीं करते है । करें क्यों ? जिनका धन असामयिक, अनुपयोगी और नातिके नष्ट करनेवाले कामोंमें बड़ी उदारताके साथ सर्च होता है उन्हें इन कामोंसे जरूरत ? उनके लिए जाति कल नष्ट होती हो तो वह आज ही हो जाय, उन्हें इसका कुछ दुःख नहीं। ऐसे लोगोंके विचारोंपर खेद होता है । जातिके बुरे दिन यही कहलाते है। प्रथमवार्षिक विवरण-श्रीऋषमब्रह्मचर्याश्रमके प्रथम वर्षका सक्षिप्त हाल । बाबू भगवानदीनजीके द्वारा समालोचनार्थ प्राप्त । विवरणको पढ़कर बहुत सन्तोष होता है। आश्रम अपना काम अच्छी तरह कर रहा है। पहले वर्षमें ही उसे ३६ विद्यार्थियोंका मिल जाना आगेके लिए बहुत उन्नतिकी आशा दिलाता है। आमदनी भी इस वर्षकी सन्तोष जनक हुई है। ११५९८॥) की आमदनी होकर ५८७४॥) खर्च हुए हैं । इससे नान पड़ता है कि जैन समाजमें कुछ कुछ विद्याकी उपयोगिता समझी जाने लगी है । पर अभी नैनियोंके लिए बहुत कुछ करना बाकी है । इस लिए हम उनका ध्यान आश्रमकी ओर खींचते है | अभी जितना कुछ हो रहा है, उसके लिए केवल यही कहा जा सकता है कि हां कुछ न होनेसे यह अच्छा है। इनके अतिरिक्त हमारे पास जैनवोर्डिंगलाहोर और ऐलक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नालालनपाठशालाशोलापुरकी रिपोर्ट भी समालोचनार्थ आई हैं। पर खेद है कि स्थानके न रहनेमे उनके सम्बन्धमें हम कुछ विशेष नहीं लिख सकें। हम उक्त संस्थाओंके उदार कार्यकर्ताओंसे इस बाबत क्षमा चाहते हैं। समाचारसार। जयपुर से हमारे पास एक हितैषी महाशयका भेजा हुआ लेख आया है । लेख विलम्बसे पहुचनेके कारण हम उसे छाप न सके । उसका सक्षिप्त सार यह है, कि "जयपुरमें पहले जैनियोंकी वहुत संख्या थी पर जबसे जातिमें कन्याविक्रय और वृद्धविवाहकी बुरी प्रथा जारी हुई है तबसे यहा जैनियोंकी सख्याका हास ही होता जाता है । घटते घटते आज मुस्किलसे छह हजार सख्या वची होगी । इतनेपर भी जातिके कुलकलंक बूड़ोंको शर्म नहीं लगती जो मरते मरते भी वे विवाह करनेकी तैयारी करते है । बेचारी वालिकाओंका जीवन नष्ट करना चाहते हैं। पाठक, मुझे कुछ लिखनेकी नरत न थी,पर इस महीनेमें दो बूढ़े बाबा अपना विवाह करेंगे । मुझे वेचारी उन अबोध बालिकाओंपर दया आई। मेरा हृदय उनके भावी दुःखको न सह सका । इस लिए जातिके सामने यह हाल मुझे उपस्थित करना पड़ा। क्या नातिके पञ्च अपनी इन्द्रियोंको वश करके एक दिनके भोजनकी परवा न करके-इस घोर अत्याचारका प्रतिकार करेंगे? क्या उन अपनी लड़कियोंके भावी जीवनपर खयाल करके उनके गलेपर चलती हुई छुरीको रोकेंगे ? और इन बूढे न्यानोंके लिए इस Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापापका कोई भयानक दण्ड देनेकी कोशिश करेंगे ? निससे ऐसा भत्याचार न हो। मैं आशा करता हूं कि जयपुरकी पन्चायती इस बातपर अवश्य खयाल करेगी कि निस स्थानको टोडरमलनी, अमरचन्दनी,जयचन्दजी आदि पुरुषरत्नोंने अवतार लेकर पवित्र किया है उसकी छातीपर इस महाकलंकका दाग न लगने देगी। एक हितैषी। विवाहमें दान-गोदेगांव निवासी श्रीयुक्त मोतीलालनी दगड़ा- . का माघ विदी ८ को विवाह था । आपने चाहा कि हमारा विवाह नैनविवाह पद्धतिके अनुसार हो। इसपर लड़कीका पिता स. म्मत नहीं हुआ । एक ओरका यह दुराग्रह देखकर आप भी अपने धार्मिक प्रेमको नहीं दवा सके । आपने साफ कह दिया कि जैनपद्धतिके अनुसार विवाह होगा तब ही हम विवाह करेंगे नहीं तो हमें कुछ दरकार नहीं है। आपकी इस दृढ़तापर लड़कीके पिताको नबरन यह स्वीकार करना ही पड़ा । विवाह ठीक भेन. विधिके अनुसार सम्पादन किया गया । उस समय आपने जैन संस्थाओंके किए भी कुछ दान देकर अपनी उदारताका परिचय दिया है । वह सबके अनुकरण करने योग्य है। १०१) नायडोंगरीके जैनमन्दिर। ११)। नैनसिद्धान्त पा० मोरेना । २१) सरस्वतीभवनआरा । ११) श्रीऋषभब्रह्मचर्याश्रमं । ११) स्याद्वाद पाठशालाकाशी। ५) खण्डेलवाल पंच महासमा । लालचन्द काला मालेगांव । खेद और आनन्द दहलीमें करीब ढाई महीनेसे विद्याप्रचारिणीजैनसभा स्थापित है। उसके सभापति श्रीयुक्त रिक्खमलनी और उपसभापति लाला रामजीदास कागजी है । सभाका उद्देश्य Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) श्वेद्याप्रचार और उपदेशादिके द्वारा जातिकी कुरीतियां नष्ट करना है। उद्देश्य तो बहुत अच्छा है यदि समाने कार्यकर्त्ता रूयं उनपर चटकर औरोंको भी उसपर चलानेके लिए प्रयत्न करें। क्योंकि पर उपदेश कुशल बहुतेरे की उक्तिको चरितार्य करने वाले तो बहुत हैं, पर उन लोगोंकी बड़ी नरूरत है जो कह कर स्वयं भी उसपर चलने वाले हों । समाजपर ऐसे लोगोंका ही बहुत प्रभाव पड़ता है । हमें यह जानकर बहुत खेद होता है कि उत समाके कार्यकर्त्ताओंने जिम उद्देश्य को लेकर यह समा स्थापितकी है, वे स्वयं भी उस पर चलने के लिए वान्य नहीं हैं । दहली के एक सम्वाद दाताने हमारे पास जो समाचार छपनेके लिए मेने हैं और यदि वे सत्य हैं तो हम कहेंगे कि यह हमारे लिए बड़ी मारी लज्जाकी चात है जो हम स्वयं अपने स्थापित किये उद्देशपर नहीं चलते हैं । लेखकने लिखा है कि श्रीयुक्त सभापति महाशयने अपने भतीजे दिर एक लड़का दत्तक लिया है । उसकी खुशीमें उन्होंने वार्मिक संस्थाओंकों भी कुछ दान दिया है और वह सबके अनुकरण करनेके योग्य है। इसमें सन्देह नहीं कि यह कार्य आपने बहुत अच्छा किया है । आपकी धर्मबुद्धिका इसमे परिचय मिलता है । पर ऐसी धर्म बुद्धिके होनेपर भी फिर न जाने क्यों आपने इस मंगल कार्यमें वेश्याओंका नाच करवाया ? क्या इन कुलकलंकिनियोंके बिना आपके कायमें शामा नहीं होती ? जो पैसा इन्हें दिया गया, क्या ही अच्छा होता यदि वही अपने देश या जातिके दुखी, अनाय, भाइयोंके उपकार में खर्च किया जाता ? इसीसे तो हम कहते हैं कि हमें उन टोगोंकी जरूरत है जो पर उपदेश कुशल बहुतेरे इस उक्तिके Page #108 --------------------------------------------------------------------------  Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : हिन्दविश्वविद्यालय के लिए वम्बईके निवासियोने लाभग टाई लाख रुपया दिया है। भारतवर्षके प्रधान व्यापारकी जगहसे बहुत थोडा द्वन्य मिला देखकर बड़ी निराशा होती है । जिन वम्ब इके धनिकानें भारतवर्षके अकर्मण्य दलको मालामाल बना दिया, जिनसे कि आज देशका कुछ भी उपकार न होकर उल्टा अपकार हो रहा है, उनके लिए देशको उन्नतिके मूल हिन्दूविश्वविद्यालयके लिए इतना योड़ा द्रव्य देना क्या संतोपकारक कहा ना सकता है? नहीं । आशा है बम्बईवासी जिस शहरमें रहते है उसकी योग्यताके माफिक धन द्वारा विद्यालयको उपकृत करेंगे। ___ इन्दौर-की प्रतिष्ठा निर्विघ्न समाप्त होगई । प्रतिष्ठाकारक बाबा गीलचन्दनी जयपुर निवासी थे। सुशीकी बात है कि बाबा जीने संस्कृत न जानकर भी प्रतिष्ठा निर्विघ्न समाप्त करवादी । आपके पास एक भाषाका प्रतिष्ठापाठ है । सुनते है कि उसीसे आपने प्रतिष्ठा करवाई थी। अच्छा हो यदि वावाजी उस प्रतिष्ठापाठका सर्व साधारणमें प्रचार करदें, जिससे प्रतिष्ठा करानेवालोंको भी सुगमता हो जायगी और जो प्रतिष्ठाकारकोसे वर्तमानके प्रतिष्ठाचार्य हजारों रूपया ठहराकर प्रतिष्ठा करवाते हैं उनका पैसा मी वच जायगा । प्रतिष्ठामें पन्द्रह हजारके लग भग जनसमुदाय एकत्रित हुआ था । सुनते है कि वाहरकी संस्थावालोंको भी कुछ सहायता मिली है । कितनी यह टीक मालूम नहीं । नवीन पत्र-फिरोजपुरकी जीवदयाप्रचारकसभाकी ओरसे एक मासिक पत्रिका निकालना निश्चित किया गया है । यह हिन्दी, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) अंग्रेजी और उर्दमें होगा । इसमें जीवदयाके प्रचार करनेवाले अच्छे अच्छे विद्वान् डाक्टरों और साइन्सवेत्ताओंके उत्तमोत्तम लेख तथा और भी सव विषयके लेख रहा करेंगे। पत्र अपने ढङ्गका एक ही होगा । इतनेपर भी मूल्य केवल १)रु० ही रक्खा जाना निश्चित किया गया है । सभा चाहती है कि पत्रका जन्म मार्च महीनेसे हो जाय । दयाप्रेमियोंको ग्राहक होनेकी स्वीकारता देनी चाहिए । अमोलकचन्द फिरोजपुरछावनी। जैनतत्त्वप्रकाशक-इटावेका तत्त्वप्रकाशक प्रकाशित होगया। रत्नमाला-सुना तो यह था कि खुजैकी श्रीमती रत्नमालाके दर्शन एक ही सप्ताह बाद हो जायेंगे । फिर न जाने क्यों सप्ताहपर सप्ताह वीत गये तब भी उसके अभीतक दर्शन नहीं हुए यह विलम्ब एक गहरा सन्देह पैदा करता है । हम तो यह चाहते थे कि माला अपनी कामनाएं पूर्ण करके विश्रान्ति लाभ करती । - जैनबोर्डिङ्ग-यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि वड़वानी (निमाड़ ) में श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादनी और मास्टर दर्यावसिंहजीके उद्योगसे जैनबोर्डिङ्गकी स्थापना हुई है। उसके लिए लगभग छह सात हजारका द्रव्य भी लिखा गया है। विशेष खुशीकी यह बात है कि वहांके महाराजा साहब भी इसके सहायक हैं। इस प्रजा प्रेमके लिए महाराजा साहव धन्यवादके पात्र हैं। निमाड़ प्रान्तके जैनियोंमें सबसे पहला जागृतिका चिन्ह यही है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाधिप्रदान-प्रातःस्मरणीय स्याद्वाद वा. पं. गोपालदासनीकी अपूर्व जैनसिद्धान्तज्ञतापर मुग्ध होकर कलकत्ता कालेनके श्रीशतीशचन्द्र महामहोपाध्याय आदि प्रसिद्ध विद्वानोंने उन्हें न्यायवाचस्पतिकी उपाधि प्रदान की है । पंडितनीका मिन्नधर्मिर्यो द्वारा यह अपूर्व सम्मान देखकर यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि गुण ना हिरानो गुणगाइक हिरानो है। यही तो कारण था कि जैनसमाओंके द्वारा दी हुई पदवीसे चिढ़कर कुछ अनुदार लोगोंने आकाश पाताल एक कर दिया था । सच है, चिरन्तनाभ्यासनिवन्धनेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः । जिसका जैसा अभ्यास होता है वह काम मी वैसा ही करता है। च्याइका स्वांग-बम्बई प्रदेशमें रुतवी नामकी एक जाति है। इस मातिमें प्रति दस या वारह वर्ष वाद न्याह होता है । गत शनिवारको सूरतमें इस जातिमें चार सौ व्याह हो गये । केवल एक दुलहनकी अवस्था वारह वर्षसे अधिक थी, अधिक दुलहने एकसे स्यारह वर्षके भीतर ही की थीं। दूलहोंकी अवस्था तीनसे नौ वर्षतक थी। विवाहके समय अधिकांश वरवधू अपनी माता पिताकी गोदमें बैठे थे। जिसमें वे रोवें चिल्लायँ नहीं इसलिये उन्हें लडडू पढ़े खिलाये गये थे! लश्कर ( गवालियर ) में जैन लायब्रेरीकी स्थापना हुई है। वहांके उत्साही नव युवकोंको धन्यवाद है। जयपुर-से मी एक नवीन जैनपत्रका जन्म होना सुना गया है। कन होगा ! यह नाननेकी उत्कण्ठा है। - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) सूचनाएँ। महाराष्ट्रीयखण्डेलवालपञ्चमहासमाके किसी भी फण्डका जिन निन महाशयॊपर रुपया लेना है, उन्हें उसके भेजनेकी कोशिश करनी चाहिए । विना रुपयोंके कितने ही काम रुके हुए पड़े हैं। वर्तमानमें समाको एक उपदेशकके रखनेकी बड़ी आवश्यक्ता है। पर जवतक हमारे भाई रुपयोंके भेजनेकी जल्दी न करेंगे तब तक यह जरूरी काम रुका हुआ ही पड़ा रहेगा । हम आशा करते है कि सब सज्जन हमारी प्रार्थनापर अवश्य ध्यान देंगे। प्रार्थी-खुशालचन्द नांदगांव. (नाशिक) सस्ते और सुन्दर भावोंके चित्र । जयपुरकी चित्रकारीकी प्रशंसा करना व्यर्थ है। उसकी देश देशान्तरोंमें प्रसिद्धि ही इस बातका प्रमाण है कि वह कितनी मनोमोहिनी होती है। हमारे भाई मंदिरोंके लिए हजारों रुपयोंके चित्र मंगवाते है पर उन्हें ठीक ठीक कीमत ज्ञात न होनेसे बहुत कुछ हानि उठानी पड़ती है । इस लिए हमने वर्द्धमानजैन विद्यालयों इसका प्रबन्ध किया है। यहांसे बहुत सुन्दर और सस्ते चित्र भेजे जा सकेंगे। इसमें एक विशेष बात यह होगी कि ये चित्र विद्यालयके चित्रकारीलासके अध्यापक तथा छात्रोंके तैयार किए हुए होंगे। हमें पूर्ण आशा है Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५ ) किहमारे भाई सब तरहके चित्र यहीसे मंगवानेकी कृपा करते रहेंगे। मेनेजर-श्रीवर्द्धमानजनविद्यालय जयपुर. जैन पाठशालाओंमें जैनधर्मले जानकार अध्यापकोंकी बहुत आवश्यता रहती है। न्याय व्याकरणादिक जानकार होने पर भी वे धार्मिक सिद्धान्तसे आनभिज्ञ रहते हैं। इस लिए जैनधर्मकी उन्नतिमें बड़ी बाधा पड़ती है। हमने ऐसे पंडितोंके लिए तया गुजराती, मराठी, हिन्दी, ट्रेनिंगकॉलेन या हाईस्कूलमें पड़े हुए मास्टरों और विद्यार्थियोंके लिए जैनधर्मके सिखानेका प्रवन्ध किया है। उन्हें सब विषयका पत्र व्यहार नीचे पतेसे करना चाहिए। वुद्धलाल श्रावक, हागगंज दमोह. हम सब भाइयोंसे प्रार्थना करते हैं कि वे अपने अपने गांवके पञ्चायती समाचारोंके भेजनेकी कृपा करें । हम उन्हें सहर्ष छोपेंगे। हमारे इस पत्रका यह खास उद्देश्य है कि इसमें जाति सन्वन्धी हर प्रकारके अगड़े प्रकाशित किये नाकर और उनसे होनेवाली नातिकी हालत दिखल कर उनके मिबनेका उपाय किया जाय । क्योंकि हमारी जातिके अध.पतनके कारण ये घरेलू झगड़े ही हैं। नबतक ये नष्ट न होंगे तबतक जातिकी उन्नति होना कष्ट साध्य ही नहीं किन्तु असंभव है । आशा है कि पाठक हमारी इस प्रार्थनापर ध्यान देंगे। नातिका एक तुच्छ सेवक उदयलाल काशलीवाल. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र, असली, २० वर्षका अभिमूदा, सैंकडों प्रशंसा पत्र प्राप्त えびの प्रसिद्ध हाजमेकी, अक्सीर दवा, " नमक सुलेमानी फायदा न करे तो दाम वापिस । यह नमक सुलेमानी पेटके सब रोगोंको नाश करके पाचनशक्तिको पढाता जिससे भूख अच्छी तरह लगती है, भोजन पचता है और दस्त सोफे होता है | आरोग्यतामें इसके सेवनसे मनुष्य, बहुतसे रोगोंसे थचा रहता है । इसके सेवन से हैजा, प्रमेह, अपच, पेटका दर्द, वायुशूल, संग्रहणी, अतीसार संवाद खुजली, सीर, कब्ज, खट्टी डकार, छातीकी जलन, बहुमूत्र, गठिया, खाज, यादि रोगोंमें तुरन्त लाभ होता है । विच्छू, मिढ़, बरोंके काटने की जगह, इसके मलने से लाभ होता है, स्त्रियोंकी मासिक खराबीकी यह दुरुस्ती करता है ि अपच दस्त होना, दूध डालना आदि सब रोगोंको दूर करता है। इससे उदरी जलोदर, कोष्टवृद्धि, यकृत, लाहा, मन्दाभि, अम्लशूल और पित्तप्रकृति आदि सब रोग भी आराम होते हैं । अतः यह कई रोगोंकी एक देवी स स्थोंको अवश्य पास रखनी चाहिये । : व्यवस्था पत्र साथ है । शीशी घडी ॥) आठ आना । तीन शी१।०) छह शी० २शा), खर्च अलग | ● . खजुदमन - दादकी अक्सीर दिवा । की डिब्बी'।) आना वृन्तकुसुमाकर - दांतोकी रामबाण दवा । फी, डिब्बी, 1) आना. नोट- हमारे यहां सब रोगोंकी तत्काल गुण दिखानेवाली दवाएं तैया बहती हैं। विशेष हाल जाननेको बड़ी सूची मंगा देखो । - मिलनेका पर्ता :'चंद्रसेन जैनवैद्य-इटावा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- _