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कहती कि " तुम्हारा पिता (ईश्वर) मोक्षमें है " यदि वालकपनकी ये बातें मुझे याद न रहती तो सचमुच मैं नास्तिक हो जाता । संसारमें ऐसे उदाहरणकी कमी नहीं है। हम अपने जीवनमें माताकी दी हुई शिक्षाका जो कुछ फल भोग रहे है, उससे लाभ उठा रहे हैं, उसके द्वारा ही माताके गुण दोष हमारे जीवनमें किस तरह अनायास अथवा दृढ़तासे कार्य करते है यह हम जल्दी समझ सकते हैं ।
उपदेशकी अपेक्षा माता पिताका व्यवहार बालकके चरित्रगठनमें अधिक काम करता है । ऐसा देखा जाता है कि उपदेश और हो और कार्य और ही हो तत्र भी बालकगण उपदेशका छोड़कर कार्यका ही अनुसरण और अनुकरण करते है ।
सन्तानकी शिक्षा और उसके चरित्रगठन के सम्बन्धमें माताके गुरुत्वकी और हमारी वर्तमान अशिक्षितावस्थाकी मीमांसा करने पर सन्तानके उन्नतिकी आशासे निराश होना पडता है । हमारे देशमें सच्ची माता नहीं यह सामान्य लज्जा और दुःखका विषय नहीं है। जिसके ऊपर सन्तानकी शारीरिक, मानसीक और नैतिक उन्नति निर्भर है उसे किस तरहकी गुणवती और विदुषी होनी चाहिए यह शब्दों द्वारा समझाना कठिन है ।
( १ ) बालकगण उपदेशकी अपेक्षा कार्यका ही अधिकतर अनुसरण करते है । इस लिए सन्तान के सामने किसी तरहका बुराकार्य नहीं करना चाहिए और न कभी बुरे वचन बोलना चाहिए। तुम्हारे खोटे व्यवहार करनेसे, दूसरेके प्रति अन्याय करनेसे अथवा किसीको ठगनेसे बालक के सुकोमल हृदयमें उसी तरहका चित्र अङ्कित होजा
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