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( ७३ ) लेता है, इसका बहुत कुछ प्रतिभास वम्बईसमाके अधिवेशनमें हुआ है। पहले विश्वास तो यह था कि मनुष्य चाहे कितना ही स्वार्थी क्यों न हो तब भी वह अपने स्वार्थके लिए, स्वार्थ भी केवल इतना ही कि हमारे अन्नदाता हमसे खुश रहें, बड़े भारी जन समुदायका अहित न करेगा। परंतु अब वह विश्वास नहीं रहा । उसके स्थानमें यह श्रद्धा जम गई कि पैसेका गुलाम, चाहे वह पढ़ा लिखा ही क्यों न हो, अधमसे अधम काम भी कर सकता है । अपनी तुच्छातितुच्छ मलिन वासनाके लिए अपनी जातिका, अपने देशका अकल्याण कर सकता है। उनकी उन्नतिके कारणोंको धूलमें मिलानेकी जी जानसे चेष्टा करनेके लिए उतारु हो जाता है । ऐसे मनुष्योंको यदि हम समाज और देशके दुश्मन कहें तो कुछ अनुचित नहीं जान पड़ता। __जबसे अभागे जैन समाजमें दस्मे और बीसोंके अगडेने अवतार लिया है तबहीसे कुछ लोगोंने उमे जातीय अगडेका जामा पहराकर बहुत कुछ आन्दोलन करना आरभ किया है । इसका परिणाम समानके लिए कैसा हुआ इससे सब परिचित है । महा सभाने, जो भारत वर्षके सब जैनियोंके हितके लिए स्थापित हुई थी, प्रादेशिक रूप धारण कर लिया है। और अब वह कुछ गिनतीके लोगोंकी समा गिनी जाने लगी है । कई धार्मिक संस्थाए जो समाजमें विद्यावृद्धिके लिए स्थापित है और अपनी शक्तिके माफिक समाज सेवा कर रही है वे कुछ अनुदार हृढयी पुरुपाको काटेकी तरह चुभ रही है । उनकी अभिवृद्धि उन्हें सुहाती नहीं है । क्यों ? यह बतलाना अपनेको अपराधी बनाकर गालिया सुननेका पात्र बनाना है । सामाजिक पत्र, जिनका उद्देश्य-कर्त्तव्य