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(४३) धर्म विरुद्ध कार्य, धर्म-धुरंधर बंधुओं और विद्वानों द्वारा जातिसे वंदकिये गये थे वे ही आज निरर्गलतासे जारी होगये । जैनी दयाधर्मी कहलाते हैं, परन्तु अपने भाइयोंसे वे महानिर्दयताका वर्ताव करनेमें सदा कटिबद्ध रहते हैं। इसीसे कहना पड़ता है कि.न मालूम इस .जातिका क्या होनहार है ? एक समय यह जाति शान्ति और एकताकी आदर्श जाति समझी जाती थी, पर आज वह सब स्वप्नकीसी लीला जान पड़ती है। उसमें अनेकता और अशांतिका पारावार नहीं रहा । जहां देखो वहां जातिके. भाई आपसमें सुलह करना महापातक समझने लगे । उनका क्रोध आंखोंमें उवल उठने लगा। उन्हें अपने ही सर्मियोंसे बदला लेनेके लिये अदालतों में पहुंचना पड़ा । वहां पहुंचते ही उनकी आंखोपर पट्टी बंध गई। मुकदमें चलने लगे। अंधाधुंध द्रव्य खर्च होने लगा। जगतमें अपयशका डंका बज गया । इस प्रकार धर्म, धन, मान, यश, सबको वे जलांजुला दे बैठे । पाठकगण ! खण्डेलवाल जातिके लिये यह कितनी लज्जाकी वात है ? इससे अधिक और क्या हमारी अधोगति हो सकती है ! __इस सर्वेकपा जातीय फुटने-बरेलू झगडोंने-उन्नतिके मार्गमें कांटे बोदिये हैं। अन्य जातियोंमें जातीय भाइयोंका पारस्परिक प्रेमभाव देखकर हृदयमें जितना ही सन्तोष होता है उससे भी कहीं अधिक दुःख अपनी जातिकी दुर्दशाके देखनेसे होता है । आश्चर्य इस बातका है कि जीवमानसे प्रेम करना जिसका प्रधान कर्तव्य था उसीका उससे तिरोभाव होगया । यहांतक कि कुटुम्बीय कलहके कारण वंशके वंश नष्ट होगये।भाई भाईमें, पति स्त्रीमें, पिता पुत्रमें, वहिन भाईमें