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(६५) डालना चाहिए । हमारे शास्त्रोंमें वर्णाश्रम धर्मका लेख है, प्रायश्चितपाठोंमें भी वर्गोंका ही कथन है; भगवजिनसेनाचार्यकृत महापुराण भी इसहीकी साक्षी देता है कि आदिब्रह्मा श्रीऋषमदेवने क्षत्रिय वैश्य और शूद्र यह वर्णत्रय स्थापन किया और तत्पश्चात् उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मणवर्ण स्थापन किया । इस प्रकार चार वर्णांका व्यवहार कर्मभूमिकी आदिमें प्रारंभ हुआ था । अग्रवाल खंडेलवाल परवार, ओसवाल, हुमड़, शेतवाल आदि भेदोंका उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । और जैसे खण्डेला ग्रामके क्षत्रिय तथा इतर वर्णीय, जैनधर्म अंगीकार करनेवाले खण्डेलवालोंके नामसे विख्यात हुए, राजा अग्रकी सन्तानवाले अग्रवाल कहलाए; इस ही प्रकार अनेक जातियां उत्पन्न हुई और होती रहती हैं। इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश कुरुवंश आदिवंशोंकी उत्पत्ति भी इसही तरह हुई है। परन्तु जैसी खानापानादि व्यवहारकी संकीर्णता इस समय दिखलाई देती है वैसी पहले कभी नहीं थी। धार्मिक सिद्धान्त और प्रकृतिके अनुसार वर्णाश्रम वन्धनकी आवश्यकता तो प्रतीत होती है; परन्तु जातिभेद तो व्यर्थ उन्नतिबाधक व वात्सल्यघातक जंजीर है। इससे हमारी मूल वर्णाश्रम धर्मशंखलाहीका पता जाता रहा । मुझे कोई कारण नहीं विदित होता कि जैनधर्मावलम्बिनी समान वर्णकी जातियाँ परस्परमें रोटीवेटीका व्यवहार क्यों न करें ! न धर्म ही इसको रोकता है और न कोई लौकिक हित ही इससे होता है। जिन जातियोंमें जैनव अजैन दोनों धर्म प्रचलित हैं, उनमें यदि जैनकी अल्प संख्या होती है तो वे
अननसे विवाह आदि व्यवहार करते हुए वहुत दुःख सहते हैं और . उनकी पुत्रियोंको विवश जैनधर्म त्यागना पड़ता है। अने,