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(६७) तकलीफ न उठानी पड़ती । अस्तु । उन्होंने जिस विषयके लिए इतनी हलचल मचाई-आन्दोलन किया-परन्तु आश्चर्य है कि तब भी वे अपनी रूढिका पालन नहीं कर सके उसे सुरक्षित नहीं रख सके। उन्हें जरूरी था कि वे स्वय तो अपनी रूढिका पालन करते? यदि वे जैनियोंमें परस्परके जातिभेदको अच्छा समझते है और उससे अपनी उन्नति समझते है अथवा यों कहलो कि वे इतनी उदारता दिखलाना नहीं चाहते कि जिससे जातिमें प्रेमका संचार हो तो क्या वे मुझे इस वातका उत्तर देकर अनुग्रहीत कर सकते है कि जिस समय सेठ सुखानन्दजीने सत्रका भोजन सत्कार किया था, उस समय हमारे जातिभेदको चाहनेवाले–खण्डेलवाल, अग्रवाल, परवार, पद्मावतीपुरवार, हूमड, चतुर्थ, पञ्चम, सेतवाल, लमेचू आदि जाति वालोंके साथ क्योजीम गये वे समझा तो कि वाबू अजितप्रसादनीने जव यही बात कही तव तो वे उखड़ खडे हुए थे और स्वय अपनी भूलपर उन्हें कुछ विचार नहीं हुआ? क्या यही विचारशीलता है ? पर वास्तवमें बात क्या थी क्यों इतनी हलचल की गई थी। इस विषयका जहातक हमने अनुसन्धान किया है उससे जान पड़ा कि यह कर्त्तव्य-यह हलचल मचाना-हमारे इन भोले भाइयोंकी बुद्धिका नहीं था। उनकी स्टीमके भरनेवाले नो दूसरे ही थे। उन्हींकी कृपासे यह आन्दोलन उठाया गया था। इस लिए इस भूलके करनेवाले वे नहीं कहे जा सकते । तब साहजिक प्रश्न उठेगा कि यह सव कार्रवाई किसकी थी ? उत्तरमें हम अधिक न लिखकर पाठकोंको कुछ इशारा किये देते है । उसपर वे स्वय विचार करें । हमारे कितने जातिभाइयोंको बम्बईप्रान्तिकसभाके