Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 92
________________ (७४) समाज सुधार है, वे आज किस खुत्रीमे-कैसे पाण्डित्यके साथ-सम्पादित किए जाते हैं यह बतलानेको हम लाचार है । समझदार पाठक स्वयं समझते हैं । हमारे अभागे समाजमें पत्र सम्पादनका यही मतलब समझा गया है कि उनके कलेवर किसी तरह काले हो जाने चाहिए। फिर चाहे उनमें अच्छे अच्छे लेख न हो, उनसे किसीका हित न होता हो, समानमें उलटा उनसे बुराई होती हो, भले ही उनके द्वारा अपनी अधम मनोवृत्तिया खुश करनेके लिए दूसरेकी निन्दा की जाती हो, दूसरोंको मनमानी गालियां दी जाती हो, उनसे कुछ भी हानि नहीं समझी जाती। हमें प्रमंग पाकर लिखना पड़ता है कि हमारी जातिके एक प्रतिष्ठित नेताने एक मान्य पत्रके संपादकको दम वातकी चेतावनी की थी कि आप अमुक पत्रके साथ ही अपने लड़ाई अगड़ेका सम्बन्ध रक्से हम अमुक पत्रको इम विषयसे निष्कलक रखना चाहते है । परन्तु यह लिखना उनका एक समझदारकी आखों में धूल डालने के मानिन्द था और बिल्कुल वनावटी था। यदि यह बात उन्होंने शुद्ध हृदयस लिखी होती तो क्या वे अपनेको उसी कलकसे न बचात ? क्या वे स्वयं घृणित वासनाके दास बनकर अपनी लेखनीका दुरुपयोग करने लगते ? छिः समाजके हितपीपनेकी डींग माग्नेवाले इतने बड़े नेताके लिए यह बड़ी भारी लग्नाकी बात है। सच है पर उपदेश कुशल बहुतेरे दूसराके दोष सत्र दिखा सकते है पर अपने दोषोंपर किसीकी दृष्टि नहीं पड़ती। परन्तु यह मनुष्यता नहीं है। __ इस समय हमारी जातिमें जितनी बुराइयां पैदा हो रही है, के सत्र स्वार्थकी वासनासे मलीन और संकीर्ण हृदयी पुरुषोंकी कृपाका)

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