Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 66
________________ (४८) त्वचा, आख, नाक, कान आदि न्यारे हैं । मन न्यारा चित्त न्यारा चित्तके विकार न्यारे न्यारा है अलार सकल कर्म न्यारे हैं, गिरिधर शुद्ध वुद्ध तू तो एक चेतन है जगमें है और जो जो तोसे सारे न्यारे है। अशुचिभावना। गिरिधर मलमल सावू खूब न्हाये धोये कीमती लगाये तेल . बार वार वालमें, केवड़ा गुलाव वेला मोतियाके सूत्रे इत्र खाये सूत्र माल ताल पड़े खोटी चालमें । पहने वसन नीके निरख निरख काच गर्व कर देहका न सोचा किसी कालमें, देह अपवित्र महा हाड़ मांस रक्त भरा थैला मलमूत्रका बंधा है नसनालमें। ___आस्रवभावना। मोहकी प्रबलतासे कपायोंकी तीव्रतासे विषयोंमें प्राणीमात्र देखो फंस जाते है, यहा फसे वहा फंसे यहा पिटे वहां कुटे इसे मारा उसे ठोका पाप यों कमाते है । पड़ते परन्तु जैसे जैसे है कषायमन्द वैसे वैसे उत्तम प्रकृति रच पाते है, गिरिधर बुरे भले मन वच काययोग जैसे रहें सदा वैसे कम वन आते हैं। संवरभावना। तोड़ डाल भ्रमजाल मोहसे विरत हो जा कर न प्रमाद कभी छोड़दे कषाय तु, दूर हो विचार वात करनेसे विषयोंकी माथे पड़ी सारी सह मत उकताय तू । मन रोक वाणी रोक रोक सव इंद्रियोंको गिरिघर सत्य मान कर ये उपाय त, वधेगे न कर्म नये निरेपक्ष होके सदा कर्तव्य पालनकर खूब ज्यों सुहाय तू।

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