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ता है। फिर उसे हजारों उपदेश दीजिए पर वह दोष कभी नहीं दूर होनेका । बहुतसे ऐसे मनुष्य हैं जो बालकको अबोध समझ कर उसके सन्मुख खोटा व्यवहार करते लज्जित नहीं होते। विचार करनेसे जान पड़ेगा कि यह केवल उनकी मूर्खता है। क्योंकि वालकके स्वच्छ-निर्मल हृदयदर्पणमें माताका प्रत्येक कार्य प्रतिबिम्बित होता रहता है।
(२)बालकोंकी हर एक तरहकी बातें पूछनेमें स्वाभाविक उत्कण्ठा होती है। इस लिए बालक यदि कुछ देखकर अथवा सुनकर उस विषयमें पूछताछ करे तो माताको उचित है कि वह उसके प्रश्नोंका ठीक ठीक उत्तर दे। ऐसा न करे कि उत्तरकी जगह उल्टा उसपर विरक्त अथवा क्रोधित हो । क्योंकि उसके पूछे हुए प्रश्नपर विरतता प्रकाश करनेसे अथवा किसी तरहका उत्तर न देनेसे उसकी प्रश्न करनेकी इच्छा धीरे धीरे कम हो जाती है । इसका परिणाम यह होता है कि शिक्षाकी धार फिर बिलकुल ही बंद हो जाती है। इस लिए बालकगण जिस समय जो बात पूछे उन्हें उस समय वह वात समझानेके लिए कभी आनाकानी नहीं करनी चाहिए।
(३) बालकको पढने लिखनेके लिए अधिक धमकाना, मारना अथवा उसे पांचवर्षसे पहले पढनेके लिए विद्यालय, पाठशाला आदिमें भेजना अनुचित है। इस अवस्थामें तो माताको चाहिए कि वह अपनी सन्तानको मौखिक शिक्षा दिया करे । इंग्लेण्ड आदि सभ्य देशोंकी भाति वालकोंका विद्यालयों में रहना और उन्हें शिक्षित करनेके लिए वहा भेजना यद्यपि उचित है पर हमारे देशमें जबतक वैसे विद्यालय अथवा वैसी पढानेवाली स्त्रिया नहीं है तबतक बालकोंके लिए घर ही