Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 78
________________ ( १० ) है कि रत्नमालाका नवीन प्रेसमें छपनेका प्रबन्ध हो रहा है ! (३) t "} मेरे एक मित्र कहते थे कि सारी दुनियां में जितने साप्ताहिक पत्र निकलते है, उनमें शायद एक भी ऐसा न हो, जो जैनगजटकी बरादरीपर बिठाया जा सके | मै यह सुनकर जैनगजटके संपादक महाशयको एक पत्र लिखना चाहता था कि "आप हिन्दी न जान कर भी सिर्फ़ उर्दूकी लियाकत से इतना अच्छा पत्रसम्पादन करते हैं । आपकी इस सफलता के लिए मैं बहुत भारी खुशी ज़ाहिर करता हूं । परन्तु इतनेहीमें जैनगजट अंक ९-१० के दर्शन हुए । मैंने कवरपेजपर ही संपादकका लेख पढ़ा कि " यह जैनगजट सर्वगुण संपन्न है । यह समाजहितैषी, अनुभवी, दूरदर्शी धर्मात्माओं द्वारा सञ्चालन किया जाता है । यदि आपको अपना मनुप्यभव सफल करना है यदि आपको अपनी सन्तानको सुशिक्षित बनाकर उससे अपने कुलकी कीर्त्ति चिरस्थायी करनी है........तो जैनगजटको पढ़िये और पढाइए । " बस, मैंने पत्र लिखनेका विचार छोड़ दिया । जब सम्पादक साहबको खुद ही अपनी कामयात्रीका फक्र है, तब मैं नाहक क्यों एक पैसा खर्च करूं । हा, महासभाके दफ्तर में अलबत्तह एक मुत्रारिकवादीका ख़त लिख भेजूंगा । ( 8 ) प्रान्तिकसभा बम्बईकी सब्जेक्टकमेटीमें जब छापेकी चर्चा उठी और दो एक महाशयोंने उसका विरोध किया तत्र कुछ लोगौने कहा कि यदि सभा छापे के खिलाफ है, तो वह जैनमित्र क्यों छपवाती है ? इस पर एक पुराने, अनुभवी और धीर वीर सम्यने

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